हमारे मुल्क ने मौलिक ढंग से सोचना ही बंद कर दिया है। सच तो यह है कि हमने एक अनैतिक समाज बना लिया है। दुनिया में जहां भी नैतिक मूल्य नहीं रहे, जहां के नेताओं के पास विजन नहीं रहा, वे मुल्क खत्म हो गये। पांच हजार वर्षों की दुनिया की सभ्यता को पलट लीजिए, अनेक दृष्टांत मिल जायेंगे। उपरोक्त बातें डॉ. राम मनोहर लोहिया ने 1953 में उस्मानिया विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए कही थीं। लोहिया का वक्तव्य इतिहास के पन्नों में पड़ा आंसू पोछने पर विवश है। दूसरी तरफ आजाद भारत में ठीक चुनाव से पहले राजनीतिक दलों द्वारा घोषणा पत्र के माध्यम से जनता को पार्टी के छलिया विजन या वायदे से अवगत कराने का खेल भी जारी है। राजनीतिक दलों द्वारा जारी किये गये घोषणा पत्र एक वैसे अवैध संतान की तरह होते हैं, जिसे जोश या फिर मजबूरी में जन्म तो दे दिया जाता है, पर बाद में जन्म देने वाला उसे जन्म लेते ही ऐसी जगह फेंक देना चाहता है जहां यह पता नहीं लग पाये कि वाकई ये संतान किसकी है? मैं अन्य राज्यों की बात नहीं करता। परंतु, खासकर बिहार के मामलों में ऐसा ही होता रहा है। पंद्रहवीं विधानसभा का चुनाव अपने चरम पर है। सत्ता और विपक्ष में रही पार्टियों ने अपने-अपने घोषणा पत्र जारी कर दिये हैंं। केंद्र में सरकार चला रही एक पार्टी, जो बिहार में सर्जरी के मेज पर पड़ी है, उसने भी पहले चरण के चुनाव के बाद अपने राजनैतिक वायदों का सामूहिक लिखित वक्तव्य जारी कर दिया। लेकिन क्या भरोसा किया जाए कि एक बार इन तमाम राजनैतिक दलों ने अवैध संतानों को ही जन्म दिया है, जो सत्ता में आने के बाद ही कुम्हलाने लगेंगे। बिहार की जनता देख रही है कि नेता आसमान से प्रकट होते हैं, फिर शुरु हो जाता है उनका मायावी मकड़जाल से भरा शब्दों का ताल, जुवानी बातें। एसी कमरों और फाइव स्टार होटलों में बैठकर बनाये गये घोषणा पत्रों को जनता के बीच बांटा भी नहीं जाता। यह सिर्फ नेताओं और पत्रकारों तक सीमित रह जाता है।
बिहार में एक दल ने तो सरकार आने पर पांच वर्षों में पांच लाख युवकों को नौकरी देने की बात कर दी है। जब उनसे इस संबंध में यह पूछा गया कि नौकरी देंगे कहां से, तो उनका जवाब था, समय आने पर सब कुछ ठीक हो जाएगा। इसी तरह सभी दलों ने स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग, बिजली, पानी के मामले में बिहार को रानी बना देने की बात कही है। कोई जनता से अपना पारिश्रमिक मांगते फिर रहा है, तो कोई यह विलाप कर रहा है कि भूल हुई सो माफ करना। एक बार फिर से मौका देकर देखो, चमका नहीं दिया तो फिर कहना। खैर, बिहार की जनता इनलोगों के चरित्र से वाकिफ है। हद तो तब हो गई, जब वोट की राजनीति ने गरीब सवर्णों के लिए एक को दस फीसदी आरक्षण का वायदा करने पर विवश किया, तो एक गरीब सवर्णों की समाज में स्थिति को लेकर आयोग बनाने की बात कह दी। भला सोचिए कि बिहार की सबसे बड़ी समस्या भूमि सुधार पर बने आयोग ने जब इनकी सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, तो अब उसके बारे में बोलने को तैयार भी नहीं। वहीं बड़े भाई ने तो इस मुद्दे पर सरकार ही बना ली थी और पंद्रह साल सिर्फ शब्दों के मायाजाल पर सत्ता में रहे। पर जमीन का सवाल आज भी जमीन पर ही पड़ा है। उसकी सुध लेने वाला ठीक अवैध संतान की तरह है। इसमें कोई शक नहीं कि घोषणा पत्र किसी दल के राजनैतिक सोच का पैमाना होता है, लेकिन तभी तक जब चरित्र और विचार समान होते हैं।
आज का घोषणा पत्र सिर्फ एक नकाब है, जो नवाब बनने से पहले तक नेता अपने चेहरे और चरित्र पर टांगे रहता है और नवाब बनते ही उसे झटक देता है। जनता ठगी सी देखती रह जाती है। ठीक कहा गया कि नेता वही है, जो वोट मैनेजरी में माहिर हो। मैनेजरी बने रहने के लिए यह जरुरी है कि जनता वास्तविक सवालों के बजाए भावनाओं, जातियों और धर्म के मुद्दों पर मगजमारी करते हैं। हालांकि इस बार का चुनावी परिवेश कुछ अलग है। विकास को वोट का लक्ष्य नहीं मानने वाले लोग भी विकास की बातें करते फिर रहे हैं। अलबत्ता अल्पसंख्यक उपमुख्यमंत्री का स्वांग रचनेवाले तथाकथित दलित उद्धारक नेता अभी भी खुल्लमखुल्ला एलान कर रहे हैं कि चुनाव में जीत और हार सामाजिक समीकरणों के आधार पर होता है। उन्हें गुमान है कि हमने एक विभाग के मामले में बिहार का खूब विकास किया है। चलिए अपनी-अपनी समझ है। नेता और राजनीतिक दल घोषणा रूपी अवैध संतानों को जन्म देने से पहले विचार करें, फिर उसका विस्तार करें अन्यथा जनता ऐसी घोषनाओं को हराम का नाम देने को बाध्य हो जाएगी।
बिहार में एक दल ने तो सरकार आने पर पांच वर्षों में पांच लाख युवकों को नौकरी देने की बात कर दी है। जब उनसे इस संबंध में यह पूछा गया कि नौकरी देंगे कहां से, तो उनका जवाब था, समय आने पर सब कुछ ठीक हो जाएगा। इसी तरह सभी दलों ने स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग, बिजली, पानी के मामले में बिहार को रानी बना देने की बात कही है। कोई जनता से अपना पारिश्रमिक मांगते फिर रहा है, तो कोई यह विलाप कर रहा है कि भूल हुई सो माफ करना। एक बार फिर से मौका देकर देखो, चमका नहीं दिया तो फिर कहना। खैर, बिहार की जनता इनलोगों के चरित्र से वाकिफ है। हद तो तब हो गई, जब वोट की राजनीति ने गरीब सवर्णों के लिए एक को दस फीसदी आरक्षण का वायदा करने पर विवश किया, तो एक गरीब सवर्णों की समाज में स्थिति को लेकर आयोग बनाने की बात कह दी। भला सोचिए कि बिहार की सबसे बड़ी समस्या भूमि सुधार पर बने आयोग ने जब इनकी सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, तो अब उसके बारे में बोलने को तैयार भी नहीं। वहीं बड़े भाई ने तो इस मुद्दे पर सरकार ही बना ली थी और पंद्रह साल सिर्फ शब्दों के मायाजाल पर सत्ता में रहे। पर जमीन का सवाल आज भी जमीन पर ही पड़ा है। उसकी सुध लेने वाला ठीक अवैध संतान की तरह है। इसमें कोई शक नहीं कि घोषणा पत्र किसी दल के राजनैतिक सोच का पैमाना होता है, लेकिन तभी तक जब चरित्र और विचार समान होते हैं।
आज का घोषणा पत्र सिर्फ एक नकाब है, जो नवाब बनने से पहले तक नेता अपने चेहरे और चरित्र पर टांगे रहता है और नवाब बनते ही उसे झटक देता है। जनता ठगी सी देखती रह जाती है। ठीक कहा गया कि नेता वही है, जो वोट मैनेजरी में माहिर हो। मैनेजरी बने रहने के लिए यह जरुरी है कि जनता वास्तविक सवालों के बजाए भावनाओं, जातियों और धर्म के मुद्दों पर मगजमारी करते हैं। हालांकि इस बार का चुनावी परिवेश कुछ अलग है। विकास को वोट का लक्ष्य नहीं मानने वाले लोग भी विकास की बातें करते फिर रहे हैं। अलबत्ता अल्पसंख्यक उपमुख्यमंत्री का स्वांग रचनेवाले तथाकथित दलित उद्धारक नेता अभी भी खुल्लमखुल्ला एलान कर रहे हैं कि चुनाव में जीत और हार सामाजिक समीकरणों के आधार पर होता है। उन्हें गुमान है कि हमने एक विभाग के मामले में बिहार का खूब विकास किया है। चलिए अपनी-अपनी समझ है। नेता और राजनीतिक दल घोषणा रूपी अवैध संतानों को जन्म देने से पहले विचार करें, फिर उसका विस्तार करें अन्यथा जनता ऐसी घोषनाओं को हराम का नाम देने को बाध्य हो जाएगी।
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