कौशलेन्द्र प्रियदर्शी
आज की राजनीति और उसे व्यवसाय के रूप में अपनाने वाले राजनेता सबकुछ अपने हिसाब से तय करते हैं। तभी तो कंगाल को मालिक तथा मालामाल को सेवक का संज्ञा देने से कोई संकोच नहीं करते। इसे आप बिहार की गरीब जनता के साथ क्रूर मजाक भी कह सकते हैं। खैर राजनीति के गणित की गुणवत्ता देखिए। एक फाइव स्टार होटल में संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए बिहार के एक प्रमुख पार्टी के मुखिया कहते हैं कि अब मालिक के पास जाएंगे, इंसाफ मांगने वहीं राज्य के वर्तमान गार्जियन का कहना है कि पांच साल की मजदूरी का मेहनताना मांगने का समय आ गया है। मालिक का फैसला स्वीकार्य है। दोनों का लक्ष्य एक है, सत्ता हासिल करना। जी हां, मालिक का मतलब है बिहार की जनता। जिसकी कुल आबादी का 90 प्रतिशत गांव में प्राथमिक सुविधाओं से महरुम, भूख और बीमारी, जीविका और रोजगार, लूट और भ्रष्टाचार, शिक्षा और स्वास्थ्य, खेत और खलिहान, कल-कारखाने तथा विस्थापन और पलायन जैसे प्रश्नों की लंबी श्रृंखला के बीच कातर निगाहों के साथ जिंदगी जीने की जद्दोजहद में जुटा है। चुनाव का वक्त है। मालिक का संबोधन अनगिनत बार दुहराया जाएगा। लेकिन एक सवाल मालिकों के मानस पटल पर बार-बार कौंध रहा है कि आजादी के बाद से चुनाव दर चुनाव गुजर गए आखिरकार प्रश्नों की ये लंबी फेहरिस्त आज तक अनुत्तरित क्यों रह गई?
आजादी के नाम पर आजादी के बाद लोकतंत्र के पहरेदारी के बदले गद्दारी को अंजाम दिया गया जो सौ प्रतिशत सच है? लेकिन विडंबना देखिए कि फटेहाल मालिक ये कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। दूसरी तरफ जनता के सुलगते समस्याओं से इतर पंाच सितारा होटलों में बैठकें आयोजित कर मालिकों के बीच जाने और वायदों के गाने सुनाने का दौर भी शुरू हो गया। लेकिन सवाल फिर वहीं कि आखिर सत्ता क्यों चाहिए? अपनी आर्थिक उन्नति के लिए या सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विकास के लिए। क्या यह चुनाव भी सिर्फ चोंचलेबाजी है? आइए, मालिकों के प्रश्नों का जवाब सेवकों के आर्थिक हैसियत में ढं़ूढ़ने की कोशिश करते हैं।
आज की राजनीति और उसे व्यवसाय के रूप में अपनाने वाले राजनेता सबकुछ अपने हिसाब से तय करते हैं। तभी तो कंगाल को मालिक तथा मालामाल को सेवक का संज्ञा देने से कोई संकोच नहीं करते। इसे आप बिहार की गरीब जनता के साथ क्रूर मजाक भी कह सकते हैं। खैर राजनीति के गणित की गुणवत्ता देखिए। एक फाइव स्टार होटल में संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए बिहार के एक प्रमुख पार्टी के मुखिया कहते हैं कि अब मालिक के पास जाएंगे, इंसाफ मांगने वहीं राज्य के वर्तमान गार्जियन का कहना है कि पांच साल की मजदूरी का मेहनताना मांगने का समय आ गया है। मालिक का फैसला स्वीकार्य है। दोनों का लक्ष्य एक है, सत्ता हासिल करना। जी हां, मालिक का मतलब है बिहार की जनता। जिसकी कुल आबादी का 90 प्रतिशत गांव में प्राथमिक सुविधाओं से महरुम, भूख और बीमारी, जीविका और रोजगार, लूट और भ्रष्टाचार, शिक्षा और स्वास्थ्य, खेत और खलिहान, कल-कारखाने तथा विस्थापन और पलायन जैसे प्रश्नों की लंबी श्रृंखला के बीच कातर निगाहों के साथ जिंदगी जीने की जद्दोजहद में जुटा है। चुनाव का वक्त है। मालिक का संबोधन अनगिनत बार दुहराया जाएगा। लेकिन एक सवाल मालिकों के मानस पटल पर बार-बार कौंध रहा है कि आजादी के बाद से चुनाव दर चुनाव गुजर गए आखिरकार प्रश्नों की ये लंबी फेहरिस्त आज तक अनुत्तरित क्यों रह गई?
आजादी के नाम पर आजादी के बाद लोकतंत्र के पहरेदारी के बदले गद्दारी को अंजाम दिया गया जो सौ प्रतिशत सच है? लेकिन विडंबना देखिए कि फटेहाल मालिक ये कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। दूसरी तरफ जनता के सुलगते समस्याओं से इतर पंाच सितारा होटलों में बैठकें आयोजित कर मालिकों के बीच जाने और वायदों के गाने सुनाने का दौर भी शुरू हो गया। लेकिन सवाल फिर वहीं कि आखिर सत्ता क्यों चाहिए? अपनी आर्थिक उन्नति के लिए या सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विकास के लिए। क्या यह चुनाव भी सिर्फ चोंचलेबाजी है? आइए, मालिकों के प्रश्नों का जवाब सेवकों के आर्थिक हैसियत में ढं़ूढ़ने की कोशिश करते हैं।
No comments:
Post a Comment