टी वी पत्रकारिता का
वर्तमान दौर संक्रमण काल का है ,,,,आज मीडिया किसी की नज़र में ग्लैमर भर है ,,किसी की नज़र में पेड न्यूज़ का धंधा है ,,,,,,,,,,किसी की नज़र में कारपोरेट सेंसरशिप का शिकार है,,,,,किसी को लगता है खबरें विज्ञापन से नियंत्रित होती हैं,,,,,,किसी को लगता है की फलना मीडिया हाउस में किसी ख़ास राजनितिक दल का दबदबा है,,,,,,,,वैसे नेता जो कल तक या आज भी ऑफ दी रेकॉर्ड बत्तीसी निपोर कर मीडिया वालों की चिरौरी करते रहते हैं,,वो भी वक्त मिलते हीं मीडिया के बारे बकवास करने से बाज नहीं आते।
आखिर ऐसा क्यूँ ?????
एक तो मीडिया की दुनिया स्वनियंत्रण की बात करती है,,,,वैसा कुछ है भी और नहीं भी,,,,,मीडिया मामलों के जानकार अनिल चमड़िया की माने तो एक ऐसा माहौल निर्मित हो चूका है जिसमे स्व सेंसरशिप की स्थिति दिखाई पड़ती है,,,,,लोकतन्त्र में कई तरह के विचारों व मतों को मीडिया में जगह न मिलने की शिकयातें बढ़ी हैं ,,,,,,,,,जैसे फिलहाल जे एन यु कैम्पस काण्ड को देखें तो घटना को एक खबर के दृष्टिकोण से कम टी आर पी के हिसाब से ज्यादा तरजीह दी गयी,,,,,,,,परिणाम यह हुआ की अपने अपने विचारों की जमीन पर अपने अपने नज़रिये के अनुसार लोगो ने विभिन्न मीडिया हाउस और पत्रकारों को अलग अलग विचारों का पैरोकार बता दिया,,,,,,ये कोई नई बात नहीं,,,,,,, मीडिया हाउसों एवं लुटियंस ज़ोन के पत्रकारों का सत्ता से सरोकार के किस्से जगजाहिर रहे हैं,,,,विरोध करने पर भी बवाल मचता रहा है,,,आजकल ,,,,,प्राइम टाइम का टेंटुआ तो तो हर कोई ऐसे पकड़ लेता है जैसे उसकी भूली हुई लंगोट हो,,,,मतलब देर शाम चलने वाली बहस का डोज़ हर तथाकथित बुद्धिजीवियों पर ऐसा असर दिखाता है बगैर 24 घण्टे के उतरता ही नहीं,,,,,देशभक्त और देशद्रोही जैसे विशेषण अपरिग्रहित आभूषण की तरह जबरन एक दूसरे को पहना ओढ़ाकर नेता और बुद्धिजीववि बड़े मजे से आम जनता को बहस के दलदल में फंसाकर अपने- अपने घर चले जाते है,,,,,,
कुल मिलाकर इससे इनकार नहीं किया जा सकता है की विचारों के नज़रियागत अंतर्विरोध से आज की पत्रकारिता गुजर रही है,,,,,सम्पादक सवालों के घेरे में हैं जाहिर है खबरों की गुणवत्ता का गुना- भाग जरूर होगा,,,उपभोक्तावादी हो चुके समाज भी खबरों को एक ऐसे वस्तु की तरह इस्तेमाल करना चाहता है जो उसे संतुष्ट कर सके,,,,,इसी संतुष्टि को तुष्ट करने के लिये रक नामी गिरामी पत्रिका को प्रत्येक छः माह पर सेक्स सर्वे निकालना पड़ता है, जिसमे महिलाओं और पुरुषो से सेक्स आधारित सवालों के जवाब लिये जाते हैं ,फिर बाद में औसत निकालकर उसे 8 से दस पन्नों में बड़े बेबाकी से प्रकाशित किया जाता है,,,लोग -बाग़ भी उसे हाथो हाथ लेते हैं लेकिन यह कहने से नहीं चूकते की ,,इंडिया---- जैसी पत्रिका को ये सब नहीं निकालना चाहिये,,,गजब ,,,,,सवालों का उठना अच्छा है लेकिन नेता से लेकर तथाकथित बुद्धिजीवी भाइयों तक मीडिया में उठाये गए मुद्दे को अपने -अपने उपभोग के अनुसार भोगने की कोशिश करते तब झंझट शुरू होता है,,,,,,मीडिया को हर कीमत पर स्व नियंत्रण करना होगा,, नहीं तो सवालो की कई और खिड़कियाँ मीडिया के घरों की तरफ खुलेंगी ,,,,,,देशभक्ति दिखाना या देशभक्त होना कोई पाप नहीं है,,,,,,,लेकिन नियंत्रण के साथ ,,,,लोगों को भी चाहिये कि जो ऑन स्क्रीन जो बातें सामने आ रही हैं उसे ऐसा न समझें की उसके स्वभाव में ऐसा है ,,तात्कालिक परिस्थितियों और जरूरतों के मद्देनज़र भी बहुत कुछ दिखाना और चलाना पड़ता है,,,,,
वर्तमान दौर संक्रमण काल का है ,,,,आज मीडिया किसी की नज़र में ग्लैमर भर है ,,किसी की नज़र में पेड न्यूज़ का धंधा है ,,,,,,,,,,किसी की नज़र में कारपोरेट सेंसरशिप का शिकार है,,,,,किसी को लगता है खबरें विज्ञापन से नियंत्रित होती हैं,,,,,,किसी को लगता है की फलना मीडिया हाउस में किसी ख़ास राजनितिक दल का दबदबा है,,,,,,,,वैसे नेता जो कल तक या आज भी ऑफ दी रेकॉर्ड बत्तीसी निपोर कर मीडिया वालों की चिरौरी करते रहते हैं,,वो भी वक्त मिलते हीं मीडिया के बारे बकवास करने से बाज नहीं आते।
आखिर ऐसा क्यूँ ?????
एक तो मीडिया की दुनिया स्वनियंत्रण की बात करती है,,,,वैसा कुछ है भी और नहीं भी,,,,,मीडिया मामलों के जानकार अनिल चमड़िया की माने तो एक ऐसा माहौल निर्मित हो चूका है जिसमे स्व सेंसरशिप की स्थिति दिखाई पड़ती है,,,,,लोकतन्त्र में कई तरह के विचारों व मतों को मीडिया में जगह न मिलने की शिकयातें बढ़ी हैं ,,,,,,,,,जैसे फिलहाल जे एन यु कैम्पस काण्ड को देखें तो घटना को एक खबर के दृष्टिकोण से कम टी आर पी के हिसाब से ज्यादा तरजीह दी गयी,,,,,,,,परिणाम यह हुआ की अपने अपने विचारों की जमीन पर अपने अपने नज़रिये के अनुसार लोगो ने विभिन्न मीडिया हाउस और पत्रकारों को अलग अलग विचारों का पैरोकार बता दिया,,,,,,ये कोई नई बात नहीं,,,,,,, मीडिया हाउसों एवं लुटियंस ज़ोन के पत्रकारों का सत्ता से सरोकार के किस्से जगजाहिर रहे हैं,,,,विरोध करने पर भी बवाल मचता रहा है,,,आजकल ,,,,,प्राइम टाइम का टेंटुआ तो तो हर कोई ऐसे पकड़ लेता है जैसे उसकी भूली हुई लंगोट हो,,,,मतलब देर शाम चलने वाली बहस का डोज़ हर तथाकथित बुद्धिजीवियों पर ऐसा असर दिखाता है बगैर 24 घण्टे के उतरता ही नहीं,,,,,देशभक्त और देशद्रोही जैसे विशेषण अपरिग्रहित आभूषण की तरह जबरन एक दूसरे को पहना ओढ़ाकर नेता और बुद्धिजीववि बड़े मजे से आम जनता को बहस के दलदल में फंसाकर अपने- अपने घर चले जाते है,,,,,,
कुल मिलाकर इससे इनकार नहीं किया जा सकता है की विचारों के नज़रियागत अंतर्विरोध से आज की पत्रकारिता गुजर रही है,,,,,सम्पादक सवालों के घेरे में हैं जाहिर है खबरों की गुणवत्ता का गुना- भाग जरूर होगा,,,उपभोक्तावादी हो चुके समाज भी खबरों को एक ऐसे वस्तु की तरह इस्तेमाल करना चाहता है जो उसे संतुष्ट कर सके,,,,,इसी संतुष्टि को तुष्ट करने के लिये रक नामी गिरामी पत्रिका को प्रत्येक छः माह पर सेक्स सर्वे निकालना पड़ता है, जिसमे महिलाओं और पुरुषो से सेक्स आधारित सवालों के जवाब लिये जाते हैं ,फिर बाद में औसत निकालकर उसे 8 से दस पन्नों में बड़े बेबाकी से प्रकाशित किया जाता है,,,लोग -बाग़ भी उसे हाथो हाथ लेते हैं लेकिन यह कहने से नहीं चूकते की ,,इंडिया---- जैसी पत्रिका को ये सब नहीं निकालना चाहिये,,,गजब ,,,,,सवालों का उठना अच्छा है लेकिन नेता से लेकर तथाकथित बुद्धिजीवी भाइयों तक मीडिया में उठाये गए मुद्दे को अपने -अपने उपभोग के अनुसार भोगने की कोशिश करते तब झंझट शुरू होता है,,,,,,मीडिया को हर कीमत पर स्व नियंत्रण करना होगा,, नहीं तो सवालो की कई और खिड़कियाँ मीडिया के घरों की तरफ खुलेंगी ,,,,,,देशभक्ति दिखाना या देशभक्त होना कोई पाप नहीं है,,,,,,,लेकिन नियंत्रण के साथ ,,,,लोगों को भी चाहिये कि जो ऑन स्क्रीन जो बातें सामने आ रही हैं उसे ऐसा न समझें की उसके स्वभाव में ऐसा है ,,तात्कालिक परिस्थितियों और जरूरतों के मद्देनज़र भी बहुत कुछ दिखाना और चलाना पड़ता है,,,,,
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