कल तक फर्श पर, आज अर्श पर। लोकतंत्र की सबसे मजबूत कड़ी है कि किसी भी जाति या जमात को बहुत दिनों तक हाशिये पर नहीं रखा जा सकता। 2005 से पहले के चुनावों में राजनीतिक दलों के द्वारा अति पिछड़ी जातियों का वजूद थोड़ा बहुत स्वीकार किया जाता है। लेकिन बदलते वक्त के साथ उनकी एकजुटता ने इन्हें न सिर्फ सामाजिक रुतवा दिया, बल्कि आज की तारीख में सभी राजनीतिक दल इन पर डोरे डालने लगे है।
यानी अति पिछड़ी जातियां भी अब वोट बैंक बन गई है। ये जातियां राजनीतिक समीकरण को प्रभावित करने में सक्षम हैं। उल्लेखनीय है इनकी राजनीतिक भूमिका को बढ़ाने में राजग नेतृत्व वाली सरकार ने अहम योगदान दिया है। बिहार के पंचायत चुनावों में आरक्षण मिलने के बाद से इनके वोट बैंक की ताकत सभी दलों को समझ में आने लगी है। इसी का परिणाम है कि पद्रहवीं विधानसभा चुनाव में सभी दलों ने अति पिछड़ी जाति से आने वाले प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है। बता दें कि बिहार के प्रायः सभी जिलों में अति पिछड़ी जातियों की आबादी कमोवेश है। लेकिन शुरू से उत्तर बिहार के चुनाव में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। गौरतलब है कि अति पिछड़ी जातियों की संख्या करीब 95 है। इनमें मुख्यतः धानुक, मल्लाह, हजाम, सूढ़ी, हलवाई, कहार, तांती, नागर, बिंद कानू, गंगोत, सूर्यापुरी, कलवार, नोनिया केवट निषाद, पनेरी और खरवार हैं। जिनके इक्के-दुक्के जनप्रतिनिधि ही लोकसभा और विधानसभा तक पहुंचते रहे हैं जबकि उत्तर बिहार के मधुबनी, पं. चंपारण, सीतामढ़ी, दरभंगा, मधेपुरा, सहरसा, सुपौल सहित कई अन्य जिलों में भी इनकी संख्या अच्छी खासी है जो चुनावी गणित को प्रभावित करती हैं। पिछले विधानसभा चुनाव के परिणाम पर गौर करें तो विधानसभा तक पहुंचने वाले इन जातियों के 19 प्रतिनिधि थे। राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार नीतीश कुमार को बहुमत दिलाने में इन जातियों का एकजुट होकर मतदान करना महत्वपूर्ण रहा। गौरतलब है कि बिहार के कुल आबादी का करीब तीस प्रतिशत हिस्सा रखनेवाली अति पिछड़ी जातियों के विधायकों की संख्या 2005 से पहले बमुश्किल बारह तक हुआ करती थी। लेकिन 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू के 9, भाजपा के 6 और राजद के 4 जनप्रतिनिधि विधानसभा पहुंचे। बहरहाल, पिछले चुनाव में करवट बदली रही इन छोटी-छोटी पार्टियों का समीकरण इस बार भी अहम राजनीतिक भूमिका अदा करने जुट गया है।
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