कौशलेन्द्र प्रियदर्शी
एक जमाना था कि बेगूसराय को मास्को और मधुबनी को लेनिनग्राद के नाम से जाना जाता था। वहीं भोजपुर को भाकपा माले का गढ़ कहा जाता था। लेकिन 1990 के बाद वामपंथी धारा उन धाराओं के साथ खड़ी होने लगी जिन्हें ‘लाल सलाम’ वाले लोग बुर्जुआ वर्ग की धारा कहा करते थे और यहां से ही बिहार के मास्को, लेनिनग्राद और माले का गढ़ भी ढहना शुरू हो गया। परिणामस्वरुप मेहनत एवं अथक प्रयास की बदौलत तैयार की गई राजनीतिक जमीन सिरे से वामपंथी हाथों से सरकने लगी। स्वतंत्र पहचान पर पहचान का ही संकट खड़ा हो गया और पिछले विधानसभा चुनाव तक किसी राजनीतिक पहचान पर फंसे पेंच ने वामदलों को पहली बार एक होने पर मजबूर कर दिया। वामपंथी दलों ने आजादी के बाद से बिहार की सत्ता पर जमे रहे शासक शक्तियों के खिलाफ लगभग 170 सीटों पर एकजुट होकर लड़ने का मन बनाया है। अहम सवाल यह है कि कभी तालमेल तो कभी घालमेल की नीति अपनाने वाले वामपंथी दलों की एकता क्या वाकई कुछ ऐसा कर पाएगी जिसकी बदौलत बिहार की राजनीति में वह तीसरी ताकत के रूप में नजर आने लगे। बेशक कहा जा सकता है कि विधानसभा में जन प्रतिरोध की आवाज बुलंद करने में वाम दलों ने अपनी अहम भूमिका अदा की है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि कभी कांग्रेस, तो कभी लालू यादव को समर्थन देने के चक्कर में इनका चक्का जाम हो गया। बिहार में वामपंथियों की स्थिति भी कांग्रेस पार्टी से मिलती-जुलती है।
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बेड़ा हुआ गर्क
उल्लेखनीय है कि 1990 में लालू यादव बिहार की सत्ता में आए। दूसरी तरफ वामपंथी विचारधारा वाली पार्टियां शुरू से ही दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा का धुर विरोधी रही थी। 1990 के बाद से भाजपा विरोध के नाम पर अपनी स्वतंत्र पहचान रखने वाले वाम दल एक-एक कर लालू यादव के साथ हो लिए। हालांकि 90 के पहले भी कई विधानसभा क्षेत्रों में इनलोगों की आपसी लड़ाई ने ही जनाधार का खेल बिगाड़ा था। लेकिन इसके बाद से धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सत्ताधारी जमात के साथ हो लेना इनकी स्वतंत्र पहचान के लिए सबसे बड़ा संकट साबित हुआ। हालांकि वक्त को पहचान कर भाकपा माले ने लालू यादव से अपना नाता कुछ ही समय बाद तोड़ लिया जिसका नजराना आज तक जनता की तरफ से माले को मिलता रहा है। दूसरी तरफ भाकपा और माकपा धीरे-धीरे कांग्रेस पार्टी की तरह बिहार के अंदर एक परजीवी राजनीतिक जमात बन बैठी। परिणाम यह हुआ कि 1980 में 31 सीटों पर जीतने वाली भाकपा तथा माकपा नवंबर 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में क्रमशः तीन एवं एक सीटों पर अपना अस्तित्व बकररार रखने में कामयाब हो पाई। लालू यादव से शुरूआती तालमेल का फायदा यह हुआ कि कुछ वामपंथी 90 के बाद भी लोकसभा तक पहुंच गए तथा विधानसभा में भी दो अंकों में इनकी भागीदारी बनी रही। वहीं घाटा यह हुआ कि धीरे-धीरे इनका जनाधार खिसकने लगा। तालमेल के बाद जब तक भाकपा और माकपा लालू से अलग होते तब तक इनका बंटाधार हो चुका था।
विकल्प बनने की कोशिश
बिहार के अंदर वामपंथी दल पहली बार साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। पंद्रहवीं विधानसभा चुनाव के लिए यह एक बिल्कुल नया पक्ष है। बेहतर नतीजे की आस में वामपंथी दल भी उत्साहित हैं। हालांकि भाकपा माले की राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य इस वाम एकता को एकता का प्रारंभिक चरण मानते हैं। इनका कहना है कि हमलोग की चुनावी रणनीति साझा होगी वहीं चुनाव प्रचार अलग-अलग करेंगे। गौरतलब है कि भाकपा माले वालदलों में सबसे अधिक 105 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। दीपांकर कहते हैं कि इसे पूरे तौर पर एकता नहीं माना जा सकता। वहीं भाकपा के राज्य सचिव बद्री नारायण लाल का मानना है कि वाम एकता पंद्रहवीं विधानसभा चुनाव में एक नया राजनीतिक संदेश देगा, क्योंकि मुद्दे सिर्फ वामपंथी दलों के पास ही है। भूमि सुधार, औद्योगिक विकास और रोजगार विधानसभा चुनाव में वाम दलों का हथियार होगा।
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