बिहार के चार सियासती सिंह चुनावी रणक्षेत्र में बूरी तरह घायल होकर फिलहाल अपने राजनीतिक मांद में शरण ले रखे हंै। इन चार सिंहों ने बिहार विधानसभा चुनाव से पहले जब हुंकार भरना शुरू किया था तो लगा था कि सुशासन पर कयामत पर कहर टूटेगा। लेकिन हुआ बिल्कुल विपरीत। पहले इन चार सिंहों से आपका परिचय करा दें।
पहले सिंह है ललन सिंह, दूसरे प्रभुनाथ सिंह, तीसरे अखिलेश सिंह और चैथा उमाशंकर सिंह। जहां तक ललन सिंह और प्रभुनाथ सिंह की बात है तो दोनों कभी तीर वाले सरकार के यार थे। वहीं वर्तमान सांसद उमाशंकर सिंह एवं अखिलेश सिंह लालटेन ढ़ो रहे थे। राजनीति के मैदान में जब अपने मन की बात नहीं चलने लगी तो वर्तमान सांसद ललन सिंह ने जदयू में रहते हुए ही चुनाव से करीब चार माह पहले से ही अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। वहीं नीतीश को बड़े भाई के रूप में मानने वाले प्रभुनाथ भी सम्मेलनों और सभाओं के द्वारा सुशासन के खिलाफ झंडा बुलंद कर रहे थे और बदला साधने के लिए चुनाव के इंतजार में थे। वहीं दूसरी तरफ वर्षों से लालटेन थामे एवं राजद में सवर्ण नेता के रूप में पहचान बना चुके अखिलेश सिंह चुनावी घोषणा के बाद तक लालू यादव का गुणगान करते फिर रहे थे वहीं वर्तमान सांसद एवं राजद नेता उमाशंकर सिंह को भी चुनाव से पहले तक लालू से कोई गिला न था। बढ़ते वक्त के साथ चुनाव ने बिहार के राजनीतिक दरवाजे पर दस्तक दिया और इन चार सिंहों की दहार में बिहार की राजनीतिक समीकरण को अपने हिसाब से टटोलना शुरू कर दिया। परिणाम यह हुआ कि ललन सिंह ने जदयू में रहते हुए नीतीश सरकार को हराने के लिए एड़ी चोटी एक कर दिया वहीं 2009 के संसदीय चुनाव में महाराजगंज से मात खा चुके नीतीश को अपना बड़ा नाथ मानने वाले प्रभुनाथ ने पूर्व के अपने सबसे बड़े राजनीतिक दुश्मन राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद से ब्रह्म बाबा का लस्सा लगाकर हाथ मिला लिया। ललन जहां पंजा के सहारे तीर को मड़ोरने की कोशिश में लगे वहीं प्रभुनाथ लालटेन के सहारे तीर को तोड़ने के प्रयास में। लालू को जहां यह लग रहा था कि प्रभुनाथ के राजद खेमे में आने से सवर्ण वोट का एक बड़ा तबका यानी राजपूतों का समर्थन राजद को मिलेगा वहीं कांग्रेसियों को यह महसूस हो रहा था कि नीतीश के सबसे बड़े यार को अपने पाले में करके चुनावी दांव को पलट लेंगे। दूसरी तरफ लालू के ही अजीज एवं पंद्रह वर्षों तक लालू चालीसा में लगे रहे अखिलेश सिंह ने अचानक चुनाव के समय अपने ही राजनीतिक आका को सवर्ण विरोधी बताते हुए हाथ के साथ हो लिये वहीं राजद सांसद उमाशंकर सिंह अपने सबसे बड़े राजनीतिक विरोधी प्रभुनाथ को राजद के पाले में आया देख लालू से ही वगावत कर बैठे। इन चारों सिंहों ने मोर्चाबंदी के लिए भले ही अलग- अलग राजनीतिक दालानों को चुना परंतु इन चारों का लक्ष्य एक ही था नीतीश हराओ। 23 नवंबर तक राजनीतिक पलटी मार चुके इन सिंहों ने अपने-अपने वर्तमान आका को खुश करने के लिए खूब गर्जना की। इनके जुबानी हमले ने बड़े-बड़े राजनीतिक विश्लेषकों को यह कहने पर विवश कर दिया था कि इस बार के चुनाव में क्या होगा कुछ पता नहीं चलता। चुनाव से पहले आये एग्जिट पोल को ये लोग मीडिया की डपोरशंखी करार देते थे। लेकिन कहा जाता है कि गरजने वाला बादल बरसता नहीं। हुआ भी कुछ ऐसा ही। 24 नवंबर की सुबह बिहार के राजनीतिक मैदान में जब तीर और कमल ने अपने विरोधियों का शिकार करना शुरू किया तो शाम होते-होते लालटेन , पंजा और बंगले के अंदर से कराहने तक की आवाज नहीं मिल रही थी। लालटेन बुझ गया था। पंजा लहुलूहान हो गया था तो बंगला तीर से पैदा हुए बंवडर की भेंट चढ़ चुका था। बात जहां तक इन चार सियासती सिंहों की है तो तीन, ललन, प्रभुनाथ और अखिलेश ने मांद में शरण ले लिया वहीं राजद के बूरी हार की खबर सुनने का आसरा लगाए बैठे बागी सांसद उमाशंकर सिंह ने राजद सुप्रीमो को विकास एवं सवर्ण विरोधी करार देते हुए लालू के नये दोस्त प्रभुनाथ सिंह पर निशाना साधा। उन्होंने यहां तक कह दिया कि लालू जिसे सिंह समझे थे वह सियार निकला। इतना ही नहीं चारों सिंह के सारे के सारे चेले चुनावी मैदान में चारो खाने चित रहे । बेचारे अब करें तो क्या करें? स्थिति ऐसी विपरीत होगी अंदाजा इन्हें नहीं था। चलिए यह वक्त की मार है फिलहाल इनके लिए मांद ही उपयुक्त जगह है।
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