Tuesday, December 14, 2010

घोषणा पत्र एक अवैध संतान

हमारे मुल्क ने मौलिक ढंग से सोचना ही बंद कर दिया है। सच तो यह है कि हमने एक अनैतिक समाज बना लिया है। दुनिया में जहां भी नैतिक मूल्य नहीं रहे, जहां के नेताओं के पास विजन नहीं रहा, वे मुल्क खत्म हो गये। पांच हजार वर्षों की दुनिया की सभ्यता को पलट लीजिए, अनेक दृष्टांत मिल जायेंगे। उपरोक्त बातें डॉ. राम मनोहर लोहिया ने 1953 में उस्मानिया विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए कही थीं। लोहिया का वक्तव्य इतिहास के पन्नों में पड़ा आंसू पोछने पर विवश है। दूसरी तरफ आजाद भारत में ठीक चुनाव से पहले राजनीतिक दलों द्वारा घोषणा पत्र के माध्यम से जनता को पार्टी के छलिया विजन या वायदे से अवगत कराने का खेल भी जारी है।  राजनीतिक दलों द्वारा जारी किये गये घोषणा पत्र एक वैसे अवैध संतान की तरह होते हैं, जिसे जोश या फिर मजबूरी में जन्म तो दे दिया जाता है, पर बाद में जन्म देने वाला उसे जन्म लेते ही ऐसी जगह फेंक देना चाहता है जहां यह पता नहीं लग पाये कि वाकई ये संतान किसकी है? मैं अन्य राज्यों की बात नहीं करता। परंतु, खासकर बिहार के मामलों में ऐसा ही होता रहा है। पंद्रहवीं विधानसभा का चुनाव अपने चरम पर है। सत्ता और विपक्ष में रही पार्टियों ने अपने-अपने घोषणा पत्र जारी कर दिये हैंं। केंद्र में सरकार चला रही एक पार्टी, जो बिहार में सर्जरी के मेज पर पड़ी है, उसने भी पहले चरण के चुनाव के बाद अपने राजनैतिक वायदों का सामूहिक लिखित वक्तव्य जारी कर दिया। लेकिन क्या भरोसा किया जाए कि एक बार इन तमाम राजनैतिक दलों ने अवैध संतानों को ही जन्म दिया है, जो सत्ता में आने के बाद ही कुम्हलाने लगेंगे। बिहार की जनता देख रही है कि नेता आसमान से प्रकट होते हैं, फिर शुरु हो जाता है उनका मायावी मकड़जाल से भरा शब्दों का ताल, जुवानी बातें। एसी कमरों और फाइव स्टार होटलों में बैठकर बनाये गये घोषणा पत्रों को जनता के बीच बांटा भी नहीं जाता। यह सिर्फ नेताओं और पत्रकारों तक सीमित रह जाता है।
 बिहार में एक दल ने तो सरकार आने पर पांच वर्षों में पांच लाख युवकों को नौकरी देने की बात कर दी है। जब उनसे इस संबंध में यह पूछा गया कि नौकरी देंगे कहां से, तो उनका जवाब था, समय आने पर सब कुछ ठीक हो जाएगा। इसी तरह सभी दलों ने स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग, बिजली, पानी के मामले में बिहार को रानी बना देने की बात कही है। कोई जनता से अपना पारिश्रमिक मांगते फिर रहा है, तो कोई यह विलाप कर रहा है कि भूल हुई सो माफ करना। एक बार फिर से मौका देकर देखो, चमका नहीं दिया तो फिर कहना। खैर, बिहार की जनता इनलोगों के चरित्र से वाकिफ है। हद तो तब हो गई, जब वोट की राजनीति ने गरीब सवर्णों के लिए एक को दस फीसदी आरक्षण का वायदा करने पर विवश किया, तो एक गरीब सवर्णों की समाज में स्थिति को लेकर आयोग बनाने की बात कह दी। भला सोचिए कि बिहार की सबसे बड़ी समस्या भूमि सुधार पर बने आयोग ने जब इनकी सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, तो अब उसके बारे में बोलने को तैयार भी नहीं। वहीं बड़े भाई ने तो इस मुद्दे पर सरकार ही बना ली थी और पंद्रह साल सिर्फ शब्दों के मायाजाल पर सत्ता में रहे। पर जमीन का सवाल आज भी जमीन पर ही पड़ा है। उसकी सुध लेने वाला ठीक अवैध संतान की तरह है। इसमें कोई शक नहीं कि घोषणा पत्र किसी दल के राजनैतिक सोच का पैमाना होता है, लेकिन तभी तक जब चरित्र और विचार समान होते हैं।
    आज का घोषणा पत्र सिर्फ एक नकाब है, जो नवाब बनने से पहले तक नेता अपने चेहरे और चरित्र पर टांगे रहता है और नवाब बनते ही उसे झटक देता है। जनता ठगी सी देखती रह जाती है। ठीक कहा गया कि नेता वही है, जो वोट मैनेजरी में माहिर हो। मैनेजरी बने रहने के लिए यह जरुरी है कि जनता वास्तविक सवालों के बजाए भावनाओं, जातियों और धर्म के मुद्दों पर मगजमारी करते हैं। हालांकि इस बार का चुनावी परिवेश कुछ अलग है। विकास को वोट का लक्ष्य नहीं मानने वाले लोग भी विकास की बातें करते फिर रहे हैं। अलबत्ता अल्पसंख्यक उपमुख्यमंत्री का स्वांग रचनेवाले तथाकथित दलित उद्धारक नेता अभी भी खुल्लमखुल्ला एलान कर रहे हैं कि चुनाव में जीत और हार सामाजिक समीकरणों के आधार पर होता है। उन्हें गुमान है कि हमने एक विभाग के मामले में बिहार का खूब विकास किया है। चलिए अपनी-अपनी समझ है। नेता और राजनीतिक दल घोषणा रूपी अवैध संतानों को जन्म देने से पहले विचार करें, फिर उसका विस्तार करें अन्यथा जनता ऐसी घोषनाओं को हराम का नाम देने को बाध्य हो जाएगी।

Monday, December 13, 2010

सियासत में श्रीमती बाहुबली

श्रीमान बाहुबली के जुर्म की काली किताब कचहरी में खुलने के बाद कानून ने उनके उड़ान पर विराम लगा दिया, इनमें से कई सजायाफ्ता हो गये, कई जेल में हैं तथा कुछ लोग जमानत पर बाहर। यह कानून का दाव है, लेकिन सियासत का शौक जेहन से जाने का नाम न ले रहा है। इसी का परिणाम है कि सजायाफ्ता एवं जेल में बंद कुछ बेबस बाहुबलियों ने अपनी-अपनी श्रीमतियों के सहारे सियासत की पंद्रहवीं जंग से जूझने का मन बनाया है। यानी लोकतंत्र में दहशत का खेल होगा, लेकिन पर्दे के पीछे से। हालांकि पहले से भी कई श्रीमती बाहुबली अपने-अपने श्रीमान बाहुबलियों की बदौलत विधानसभा का चैखट लांघ चुकी हैं। खगड़िया के पूर्व बाहुबली विधायक रणवीर यादव की पत्नी पूनम यादव, स्व. बूटन सिंह की पत्नी लेसी सिंह, जेल में बंद अवधेश मंडल की पत्नी बीमा भारती जैसी महिला विधायक उदाहरण मात्र हैं।
    चुनाव की तिथियां तेजी से सरकने के साथ ही 38 जिलों के विधानसभा क्षेत्रों में सजायाफ्ता क्षत्रपों ने सियासत करना शुरू कर दिया है। इससे राजनीतिक दलों को भी गुरेज नहीं। गौरतलब है कि बिहार के चुनाव में कुछ बेहतर करने का प्रयास कर रही कांग्रेस ने अपने चुनावी अभियान की शुरुआत पार्टी युवराज से करवा दिया है। युवराज यानी राहुल गांधी। राहुल गांधी ने पिछले पांच सितंबर को समस्तीपुर और सहरसा में दो जनसभाओं को संबोधित किया था। बता दें कि सहरसा की जनसभा में युवराज के आजू-बाजू बैठनेवालियों में कोशी के दो बाहुबलियों आनंद मोहन एवं राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की पत्नी क्रमशः लवली आंनद एवं रंजीता रंजन थीं। कांग्रेस के अंदर इनकी सक्रियता साफ देखी जा रही है। चर्चा है कि पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन मधेपुरा के बिहारीगंज से या फिर पूर्णिया के वायसी से चुनाव लड़ना चाहती हैं, वहीं आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद महिषी विधानसभा से जोर आजमाइश करेंगी।
    इधर हत्या की सजा के जुर्म में उम्र कैद काट रहे मुन्ना शुक्ला अपनी पत्नी अन्नु शुक्ला को लालगंज से चुनाव मैदान में उतारने को तैयार हैं। उल्लेखनीय है कि श्री शुक्ला तीन बार विधायक रह चुके हैं। पटना से सटे मोकामा विधानसभा क्षेत्र में भी सजा काट रहे ललन सिंह की पत्नी सोनम देवी का चुनाव लड़ना तय है। इनका सामना वर्तमान बाहुबली विधायक अनंत सिंह से होगा। दानापुर से पूर्व बाहुबली स्व. सत्यनारायण सिंह की पत्नी आशा देवी जो वर्तमान जनप्रतिनिधि हैं, चुनाव मैदान में भाजपा के टिकट पर दोबारा चुनाव लड़ेंगी। छपरा मढौरा से कांग्रेस के टिकट पर बाहुबली मुन्ना ठाकुर की पत्नी शोभा देवी का चुनाव लड़ना तय माना जा रहा है। इसी तरह जेल में बंद रणवीर यादव की पत्नी वर्तमान विधायक पूनम देवी का खगड़िया से, जेल में ही बंद बाहुबली अशोक सिंह की मुखिया पत्नी का भी खगड़िया से ही चुनाव लड़ना तय माना जा रहा है। समस्तीपुर में हसनपुर विधानसभा क्षेत्र में बाहुबली कुंदन सिंह की पत्नी जिप उपाध्यक्ष सुनीता सिंह एवं कुख्यात अशोक यादव की पत्नी बिथान ब्लॉक प्रमुख विभा देवी भी क्रमशः कांग्रेस और जदयू से अपनी-अपनी दावेदारी जता चुके हैं। लखीसराय का कुख्यात अपराधी खिखर सिंह जिला पार्षद पत्नी चंदा देवी, नवादा में अखिलेश सिंह अपनी पत्नी अरुणा देवी को, बाहुबली कौशल यादव विधायक पत्नी पूर्णिमा यादव को चुनाव लड़ाने को बेताब हैं। सीतामढ़ी के बाहुबली राजेश चैधरी की पत्नी गुड्डी चैधरी (वर्तमान विधायक) एवं जेल में बंद अवधेश मंडल की पत्नी एवं वर्तमान विधायक बीमा भारती भी चुनावी ताल ठोकने को तैयार हैं। बेलदौर विधानसभा से दिवगंज बाहुबली सहेंद्र शर्मा की पत्नी लोजपा के टिकट पर तथा कई संगीन जुर्मों का अपराधी पप्पू देव की पत्नी पूनम देव भी विधानसभा चुनाव में दो-दो हाथ करने को तैयार बैठी हैं। इधर सिवान जेल में बंद बाहुबली पूर्व सांसद शहाबुद्दीन की पत्नी हीना शहाब भी राजद टिकट पर भाग्य आजमायेंगी। नहला पर दहला यह कि कभी नीतीश कुमार कुछ अवसर के बहाने आनंद मोहन के घर पहुंच रहे हैं। कभी राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद शहाबुद्दीन से मिलने सिवान जेल पहुंच रहे हैं, तो कभी कांग्रेस के युवराज श्रीमती बाहुबलियों का सहारा ले रहे हैं। चलिए, अब राजनीति के अपराधीकरण के स्त्रैण चरित्र को झेलने के लिए तैयार रहिए।

कभी साथ कभी घात

कौशलेन्द्र प्रियदर्शी
आज जरुरत है व्यक्तिवादी और क्षेत्रीय पार्टी के शासन को खत्म कर राष्ट्रीय पार्टी का शासन लाने की। बिहार में पार्टी की नहीं व्यक्ति का शासन चल रहा है’। उपरोक्त कथन है जनता दल यू के बागी सांसद ललन सिंह की, जिन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत क्षेत्रीय दल से करने के बाद करीब तीन दशक से अधिक क्षेत्रीय दलों के संरक्षण में बिताए हैं। अब जदयू में रहते हुए राष्ट्रीय पार्टी कांग्रे्रस के लिए पंद्रहवीं विधानसभा चुनाव में वोट मांग रहे हैं। राजद सांसद उमाशंकर सिंह भी पार्टी में रहते हुए अपने राजनीतिक लाभ के अनुसार उपयुक्त उम्मीदवारों के लिए वोट मांगेंगे। ललन सिंह और उमाशंकर सिंह में एक समानता यह है कि दल में रहते हुए दूसरे दल के उम्मीदवारों के लिए वोट मांग रहे हैं। यानी घर का भेदी लंका डाहे वाली कहावत चरितार्थ करने पर तुले हैं। राजनीतिज्ञों के यूं तो कई चेहरे होते हैं लेकिन पर्दे की पीछे। यहां तो एक ही राजनीतिज्ञ डबल रोल में नजर आ रहा है। कल तक जो साथ थे आज अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए ही घत करने को तैयार हैं। जानकारी के लिए बता दें कि डबल रोल वाले इस राजनीति की शुरुआत लोजपा के टिकट पर 2004 के लोकसभा चुनाव में सांसद बने रंजीता रंजन ने की थी। रंजीता रंजन ने नवंबर 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद के उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार कर इस डबल रोल वाले रास्ते की नींव रखी थी। श्रीमती रंजन फिलहाल कांग्रेस की शोभा बढ़ा रही है। अब उसी रास्ते पर ललन और उमाशंकर चल पड़े हैं। यह आज की राजनीति का विकृत चेहरा है जहां दल सिर्फ नीति के बजाय व्यक्ति के हिसाब से हांका जा रहा है और दिल अपने राजनीतिक स्वार्थ के हिसाब से। आज के तथाकथित राजनीतिज्ञों के लिए सिर्फ सत्ता ही सत्य है बाकी सबकुछ असत्य। आज चुनाव सिर्फ राज के लिए लड़े जा रहे हैं, नीति के लिए नहीं। तभी तो राजनीति के आंगन में साथ-साथ कदम रखने वाले दो दोस्त संघर्ष से लेकर सत्ता पाने तक साथ चले और फिर इसी सत्ता ने सिंहासन पर बैठे दोस्त से दूसरे दोस्त को विद्रोह करने पर विवश कर दिया। पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश लाओ, लालू हटाओ के अभियान के मुखिया बने ललन अब नीतीश राज हटाओ अभियान के अगुआ बने हुए हैं। जदयू में रहते हुए कांग्रेस के लिए वोट मांग राजनीति की एक और अनैतिक रेखा खींचने पर उतारु हैं। मतलब जहां से अभी पहचान है उसी घर को जलाने के लिए तैयारी कर ली है। लालटेन जलाकर जीते महाराजगंज सांसद उमाशंकर सिंह लालटेन को ही जलाने पर उतारु हैं। फिलहाल संसद में भी लालटेन का ही सहारा है। उस पर से बिडंबना देखिए कि अपने-अपने विद्रोही सांसदों को न तो पार्टी बाहर का रास्ता दिखा रही है और न ही बागी सांसद अपना घर त्याग रहे हैं। दोनों मतलबों के पीछे सिर्फ एक मकसद हैं। सत्ता में बने रहने का। मौकापरस्ती का इससे बेहतर नमूना शायद ही राजनीति में देखने को मिले। कुल मिलाकर ये दोनों राजनीति के कलयुगी विभीषण बने बैठे हैं। इसी तरह कलयुगी विभीषण हर दल में बैठे वक्त का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन देखना यह होगा कि इन कलयुगी विभीषणों के बीच रावण कौन है। टिकट के बंटवारे और चुनाव परिणाम के बाद बिहार की राजनीति में अभी और उथल-पुथल की संभावना है। सबसे आश्चर्य और गौर करने वाली बात तो यह है कि अपने क्षेत्र में मुखिया का चुनाव भी जीत पाने की क्षमता न रख पाने वाले दर्जनों लोग अपने-अपने सुप्रीमो पर आखें तरेर रहे हैं। साथ के बदले घात लगाने वाले ऐसे राजनेताओं को मतदाता क्या जवाब देंगे इसके फैसले की घड़ी नजदीक है। इतना तो तय है कि आनेवाले आम चुनाव में इसकी पहचान जनता अवश्य करेगी।फिलहाल मौकापरस्ती की जय हो।

पहचान कायम रखने की कवायद

कौशलेन्द्र प्रियदर्शी
एक जमाना था कि बेगूसराय को मास्को और मधुबनी को लेनिनग्राद के नाम से जाना जाता था। वहीं भोजपुर को भाकपा माले का गढ़ कहा जाता था। लेकिन 1990 के बाद वामपंथी धारा उन धाराओं के साथ खड़ी होने लगी जिन्हें ‘लाल सलाम’ वाले लोग बुर्जुआ वर्ग की धारा कहा करते थे और यहां से ही बिहार के मास्को, लेनिनग्राद और माले का गढ़ भी ढहना शुरू हो गया। परिणामस्वरुप मेहनत एवं अथक प्रयास  की बदौलत तैयार की गई राजनीतिक जमीन सिरे से वामपंथी हाथों से सरकने लगी। स्वतंत्र पहचान पर पहचान का ही संकट खड़ा हो गया और पिछले विधानसभा चुनाव तक किसी राजनीतिक पहचान पर फंसे पेंच ने वामदलों को पहली बार एक होने पर मजबूर कर दिया। वामपंथी दलों ने आजादी के बाद से बिहार की सत्ता पर जमे रहे शासक शक्तियों के खिलाफ लगभग 170  सीटों पर एकजुट होकर लड़ने का मन बनाया है। अहम सवाल यह है कि कभी तालमेल तो कभी घालमेल की नीति अपनाने वाले वामपंथी दलों की एकता क्या वाकई कुछ ऐसा कर पाएगी जिसकी बदौलत बिहार की राजनीति में वह तीसरी ताकत के रूप में  नजर आने लगे। बेशक कहा जा सकता है कि विधानसभा में जन प्रतिरोध की आवाज बुलंद करने में वाम दलों ने अपनी अहम भूमिका अदा की है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि कभी कांग्रेस, तो कभी लालू यादव को समर्थन देने के चक्कर में इनका चक्का जाम हो गया। बिहार में वामपंथियों की स्थिति भी कांग्रेस पार्टी से मिलती-जुलती है।
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बेड़ा हुआ गर्क
उल्लेखनीय है कि 1990 में लालू यादव बिहार की सत्ता में आए। दूसरी तरफ वामपंथी विचारधारा वाली पार्टियां शुरू से ही दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा का धुर विरोधी रही थी। 1990 के बाद से भाजपा विरोध के नाम पर अपनी स्वतंत्र पहचान रखने वाले वाम दल एक-एक कर लालू यादव के साथ हो लिए। हालांकि 90 के पहले भी कई विधानसभा क्षेत्रों में इनलोगों की आपसी लड़ाई ने ही जनाधार का खेल बिगाड़ा था। लेकिन इसके बाद से धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सत्ताधारी जमात के साथ हो लेना इनकी स्वतंत्र पहचान के लिए सबसे बड़ा संकट साबित हुआ। हालांकि वक्त को पहचान कर भाकपा माले ने लालू यादव से अपना नाता कुछ ही समय बाद तोड़ लिया जिसका नजराना आज तक जनता की तरफ से माले को मिलता रहा है। दूसरी तरफ भाकपा और माकपा धीरे-धीरे कांग्रेस पार्टी की तरह बिहार के अंदर एक परजीवी राजनीतिक जमात बन बैठी। परिणाम यह हुआ कि 1980 में 31 सीटों पर जीतने वाली भाकपा तथा माकपा नवंबर 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में क्रमशः तीन एवं एक सीटों पर अपना अस्तित्व बकररार रखने में कामयाब हो पाई। लालू यादव से शुरूआती तालमेल का फायदा यह हुआ कि कुछ वामपंथी 90 के बाद भी लोकसभा तक पहुंच गए तथा विधानसभा में भी दो अंकों में इनकी भागीदारी बनी रही। वहीं घाटा यह हुआ कि धीरे-धीरे इनका जनाधार खिसकने लगा। तालमेल के बाद जब तक भाकपा और माकपा लालू से अलग होते तब तक इनका बंटाधार हो चुका था।
विकल्प बनने की कोशिश
बिहार के अंदर वामपंथी दल पहली बार साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। पंद्रहवीं विधानसभा चुनाव के लिए यह एक बिल्कुल नया पक्ष है। बेहतर नतीजे की आस में वामपंथी दल भी उत्साहित हैं। हालांकि भाकपा माले की राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य इस  वाम एकता को एकता का प्रारंभिक चरण मानते हैं। इनका कहना है कि हमलोग की चुनावी रणनीति साझा होगी वहीं चुनाव प्रचार अलग-अलग करेंगे। गौरतलब है कि भाकपा माले वालदलों में सबसे अधिक 105 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। दीपांकर कहते हैं कि इसे पूरे तौर पर एकता नहीं माना जा सकता। वहीं भाकपा के राज्य सचिव बद्री नारायण लाल का  मानना है कि वाम एकता  पंद्रहवीं विधानसभा चुनाव में एक नया राजनीतिक संदेश देगा, क्योंकि मुद्दे सिर्फ वामपंथी दलों के पास ही है। भूमि सुधार, औद्योगिक विकास और रोजगार विधानसभा  चुनाव में वाम दलों का हथियार होगा।

फर्श से अर्श पर अति पिछड़ी जातियां

कल तक फर्श पर, आज अर्श पर। लोकतंत्र की सबसे मजबूत कड़ी है कि किसी भी जाति या जमात को बहुत दिनों तक हाशिये पर नहीं रखा जा सकता। 2005 से पहले के चुनावों में राजनीतिक दलों के द्वारा अति पिछड़ी जातियों का वजूद थोड़ा बहुत स्वीकार किया जाता है। लेकिन बदलते वक्त के साथ उनकी एकजुटता ने  इन्हें न सिर्फ सामाजिक रुतवा दिया, बल्कि आज की तारीख में सभी राजनीतिक दल इन पर डोरे डालने लगे है।
यानी अति पिछड़ी जातियां भी अब वोट बैंक बन गई है। ये जातियां राजनीतिक समीकरण को प्रभावित करने में सक्षम हैं। उल्लेखनीय है इनकी राजनीतिक भूमिका को बढ़ाने में राजग नेतृत्व वाली सरकार ने अहम योगदान दिया है। बिहार के पंचायत चुनावों में आरक्षण मिलने के बाद से इनके वोट बैंक की ताकत सभी दलों को समझ में आने लगी है। इसी का परिणाम है कि पद्रहवीं विधानसभा चुनाव में सभी दलों ने अति पिछड़ी जाति से आने वाले प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है।  बता दें कि बिहार के प्रायः सभी जिलों में अति पिछड़ी जातियों की आबादी कमोवेश है। लेकिन शुरू से उत्तर बिहार के चुनाव में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। गौरतलब है कि अति पिछड़ी जातियों की संख्या करीब 95 है। इनमें मुख्यतः धानुक, मल्लाह, हजाम, सूढ़ी, हलवाई, कहार, तांती, नागर, बिंद कानू, गंगोत, सूर्यापुरी, कलवार, नोनिया केवट निषाद, पनेरी और खरवार हैं। जिनके इक्के-दुक्के जनप्रतिनिधि ही लोकसभा और विधानसभा तक पहुंचते रहे हैं जबकि उत्तर बिहार के मधुबनी, पं. चंपारण, सीतामढ़ी, दरभंगा, मधेपुरा, सहरसा, सुपौल सहित कई अन्य जिलों में भी इनकी संख्या अच्छी खासी है जो चुनावी गणित को प्रभावित करती हैं। पिछले विधानसभा चुनाव के परिणाम पर गौर करें तो विधानसभा तक पहुंचने वाले इन जातियों के 19 प्रतिनिधि  थे। राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार नीतीश कुमार को बहुमत दिलाने में  इन जातियों का एकजुट होकर मतदान करना महत्वपूर्ण रहा। गौरतलब है कि बिहार के कुल आबादी का करीब तीस प्रतिशत हिस्सा रखनेवाली अति पिछड़ी जातियों के विधायकों की संख्या 2005 से पहले बमुश्किल बारह तक हुआ करती थी। लेकिन 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू के 9, भाजपा के 6 और राजद के 4 जनप्रतिनिधि विधानसभा पहुंचे। बहरहाल, पिछले चुनाव में करवट बदली रही इन छोटी-छोटी पार्टियों का समीकरण इस बार भी अहम राजनीतिक भूमिका अदा करने जुट गया है।

आखिर विकास किसका?

ठीक पांच साल बाद जनता का ख्याल आया है। लेकिन पांच साल तक क्या करते रहे, क्षेत्र का विकास या अपना? पंद्रहवीं विधानसभा चुनाव में विभिन्न पार्टियों के प्रत्याशियों के द्वारा  नामांकन के दौरान शपथ-पत्र के माध्यम से  जो उनकी संपत्ति का ब्योरा भरा गया है वह यही कहता है कि पांच सालों तक राजनेता सियासत कम, रियासत बढ़ाने के खेल में ज्यादा व्यस्त थे। यह बात शायद सौ प्रतिशत नेताओं पर लागू न हो लेकिन 90 प्रतिशत में कोई शक भी नहीं। एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष जिन पर टिकट में वारा न्यारा करने का आरोप है, उनके पास तो करोड़ों की संपत्ति है। जैसे पटना, कोलकाता, गुड़गांव में मकान तो, कहीं फार्म हाऊस। जदयू के पूर्व मंत्री नीतीश मिश्रा तो पांच साल में 80 लाख के मुनाफे में चले गए वहीं मधुबन के  कांग्रेस प्रत्याशी एवं निवर्तमान विधायक बबलू देव 45 लाख का रकम इजाफा कर पाने में सफल रहे। इसी तरह निवर्तमान मंत्री बिजेंद्र प्रसाद यादव, रेणु कुमारी कुशवाहा, पूर्व शिक्षा मंत्री रामलखन राम रमण, निवर्तमान विधायक ललित यादव, रामप्रीत पासवान सहित कई ऐसे राजनेता हैं जिन्होंने पिछले पंाच सालों में लाखों से लेकर करोड़ों तक कमाए। गौरतलब है कि इन सारी संपत्तियों को इनलोगों ने सार्वजनिक किया है बाकी अंदर की बात तो वे ही जानें? अब अगले पांच साल का हिसाब-किताब करने में माननीय जुट गए हैं । चुनाव प्रचार शुरू हो गया है। पता नहीं एक बार फिर तथाकथित मालिकों के साथ सेवकों के द्वारा क्रूर मजाक किया जा रहा है या कुछ और, यह तो वक्त बताएगा!

उड़नखटोला और लग्जरी गाड़ियों पर सवार लोकतंत्र के सेवक

जी हां! कहने को सेवक जो, आलीशान होटलों से मालिकों के बीच जाने का एलान कर चुके हैं अब पहुंचने भी लगे हैं। कैसे जरा जानिए। हरेक पार्टी के मुखिया फटेहाल मालिकों के बीच जाने के लिए जहां हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल कर रहे हैं वहीं  पार्टी प्रत्याशी महंगी गाड़ियों का सफर तय कर  अपने लक्ष्य को भेदने में लगे हैं। बता दें कि हेलिकॉप्टर की सवारी  काफी महंगी है जहां एक इंजन वाले हेलिकॉप्टर के प्रतिदिन का उड़ान का किराया 70 से 75 हजार है वहीं दो इंजन के हेलिकॉप्टर का किराया डेढ़ से पौने दो लाख के बीच है। पायलट के खर्च तथा अन्य  खर्च भी उड़ने वाले नेता जी को ही उठाना पड़ता है। गौरतलब है कि पिछले विधानसभा चुनाव में करीब 35 हेलिकॉप्टर और विमानों ने करीब दो हजार से भी अधिक की उड़ान भरी थी जिस पर करोड़ों रुपए खर्च हुए। हद हो गई न! जहां 45 प्रतिशत घरों में एक शाम का चूल्हा नहीं जलता वहां के तथाकथित लोकतंत्र के रहनुमाओं के द्वारा अरबों रुपये आसमानी उड़ान पर खर्च कर दिए जाते  हैं। जहां की आबादी का वार्षिक आय सिर्फ 5466 रुपया है, जहां भूमिहीन किसानों की संख्या 48.18 प्रतिशत है, जहां के लाखों लोग प्रत्येक वर्ष मजदूरी के लिए दूसरे राज्यों में पलायन कर जाते हैं वहां का राजनेता जनता के बीच जाने के लिए हेलिकॉप्टर से लेकर पजेरो, फॉरचुनर, स्कार्पियो, इंडिवर जैसे महंगी गाड़ियों का इस्तेमाल करता हो तो सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आजादी के बाद राज्य के  पहरेदारी के नाम पर कितनी ईमानदारी बरती गई है। राज्य के तमाम चार चक्का वाली महंगी गाड़ियों  के एजेंसियों के पास गाड़ी के लिए लंबी लाइन लगी है। इनके मैनेजरों की मानें तो महीना में करीब 100 से 150 के बीच गाड़ियों की  मांग बढ़ गई है। आखिर यह राज्य के विकास का द्योतक है या राजनेताओं का। तय जनता को करना है।

पहरेदारी या गद्दारी

कौशलेन्द्र प्रियदर्शी
 आज की राजनीति और उसे व्यवसाय के रूप में अपनाने वाले राजनेता सबकुछ अपने हिसाब से तय करते हैं। तभी तो कंगाल को मालिक तथा मालामाल को सेवक का संज्ञा देने से कोई संकोच नहीं करते। इसे आप बिहार की गरीब जनता के साथ क्रूर मजाक भी कह सकते हैं। खैर राजनीति के गणित की गुणवत्ता देखिए। एक फाइव स्टार होटल में संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए बिहार के एक प्रमुख पार्टी के मुखिया कहते हैं कि अब मालिक के पास जाएंगे, इंसाफ मांगने वहीं राज्य के वर्तमान गार्जियन का कहना है कि पांच साल की मजदूरी का मेहनताना मांगने का समय आ गया है। मालिक का फैसला स्वीकार्य है। दोनों का लक्ष्य एक है, सत्ता हासिल करना। जी हां, मालिक का मतलब है बिहार की जनता। जिसकी कुल आबादी का 90 प्रतिशत गांव में प्राथमिक सुविधाओं से महरुम, भूख और बीमारी,  जीविका और रोजगार, लूट और भ्रष्टाचार, शिक्षा और स्वास्थ्य, खेत और खलिहान, कल-कारखाने तथा विस्थापन और पलायन जैसे प्रश्नों की लंबी श्रृंखला के बीच कातर निगाहों के साथ जिंदगी जीने की जद्दोजहद में जुटा है। चुनाव का वक्त है। मालिक का संबोधन अनगिनत बार दुहराया जाएगा। लेकिन एक सवाल मालिकों के मानस पटल पर बार-बार कौंध रहा है कि आजादी के बाद से चुनाव दर चुनाव गुजर गए आखिरकार प्रश्नों की ये लंबी फेहरिस्त आज तक अनुत्तरित क्यों रह गई?
     आजादी के नाम पर आजादी के बाद लोकतंत्र के पहरेदारी के बदले गद्दारी को अंजाम दिया गया जो सौ प्रतिशत सच है? लेकिन विडंबना देखिए कि फटेहाल मालिक ये कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। दूसरी तरफ जनता के सुलगते समस्याओं से इतर पंाच सितारा होटलों में  बैठकें आयोजित कर मालिकों के बीच जाने और वायदों के गाने सुनाने का दौर भी शुरू हो गया। लेकिन सवाल फिर वहीं कि आखिर सत्ता क्यों चाहिए? अपनी आर्थिक उन्नति के लिए या सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विकास के लिए। क्या यह चुनाव भी सिर्फ चोंचलेबाजी है? आइए, मालिकों के प्रश्नों का जवाब सेवकों के आर्थिक हैसियत में ढं़ूढ़ने की कोशिश करते हैं।

सांसद चले विधायक बनने

कौशलेन्द्र
पटना। सियासत के सितमगारों के अंदर सत्ता की बैठी भूख ने उनकी राजनीति का रुख बदल दिया है। वर्तमान राजनीति का नशा ऐसा सर चढ़कर बोल रहा है कि कल तक संसद की सीढ़ियां लांघने वाले कुछ नेता अब विधानसभा की देहरी पार करने के लिए जनता की चैखट चूम रहे हैं। भला इस उपभोक्तावादी संस्कृति में प्रमोशन के बजाय कोई डिमोशन चाहता है। लेकिन, यह राजनीतिक दुनिया की तल्ख सच्चाई है कि अब सांसद विधायक बनने के रास्ते पर हैं।
राजनीतिक दल भी पूर्व सांसदों को विधायक बनाने में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी दिखा रहे हैं। पंद्रहवीं बिहार विधानसभा चुनाव के सत्ता संग्राम में करीब दर्जन भर पूर्व सांसदों के साथ कई केंद्रीय मंत्रियों ने भी अपनी किस्मत की नाव चुनाव के मझधार में उतार दिया है। सबसे पहले बात एक ऐसे पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री की जिनका दल बदलना रोजगार है।
जी हां, आप ठीक समझें, हम बात कर रहे हैं नागमणि की। महाशय 2001 में लोकसभा का चुनाव लड़े थे, उस समय जदयू का दामन छोड़ लालू यादव के साथ हो लिए। इस बार मन नहीं भरा तो मैडम सोनिया की शरण में आ गिरे। कुछ दिनों तक किसान महापंचायत आयोजित करने, करवाने में लगे रहें और अब विधायक बनने के लिए कांग्रेस के टिकट पर मैरवा से चुनाव लड़ रहे हैं। नागमणि अकेले इस रास्ते पर नहीं हैं। राजद सुप्रीमो लालू के दोनों साले जो कल तक लालू के साथ साये की तरह रहा करते थे, वे भी आज इसी रास्ते पर आ खड़े हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी में तरजीह नहीं मिलने के कारण  जहां साधु यादव ने पार्टी छोड़ी, वहीं सुभाष ने कुछ दिन राज्यसभा की सांसदी जाने के साथ राजद से त्याग-पत्र दे दिया। साधु 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव भी लड़ चुके हैं। सूत्रों की मानें तो साधु स्वयं चुनाव नहीं लड़ना चाह रहे थे, बल्कि अपने पचास से ज्यादा समर्थकों को लड़ाकर एवं जिताकर सत्ता की सौदेबाजी को मजबूती देना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने समर्थकों की सूची खारिज कर साधु को ही गोपालगंज से मैदान में उतार दिया। वहीं जेल में बंद कोसी के दो महाबलियों आनंद मोहन एवं पप्पू यादव  की पत्नी क्रमशः लवली आनंद एवं रंजीता रंजन भी पूर्व में सांसद की हैसियत में रह चुकी हैं। लवली आनंद आलमनगर से, तो रंजीता रंजन बिहारीगंज से चुनावी समर में ताल ठोक रही हैं। दोनों कांग्रेस प्रत्याशी हैं। हालांकि कोसी के दोनों तथाकथित बाहुबली अपने समर्थकों के लिए भारी मात्रा में टिकट की चाह रखती थीं। आनंद मोहन को जहां सफलता कम मिली, वहीं पप्पू यादव अपने बारह समर्थकों को टिकट दिलाने में सफल रहे। इसी तरह कभी भागलपुर से भाकपा के सांसद रहे सुबोध राय सुल्तानगंज से, सासाराम से सांसद रहे छेदी पासवान मोहनियां से, मधेपुरा से सांसद रहे रमेंद्र कुमार रवि मधेपुरा से, बेतिया से सांसद रहे फैजयुल आजम सिकटा से, विधायक बनने पर आमादा हैं। बांका के सांसद रहे गिरधारी यादव बेलहर से, शिवहर के सांसद रहे अनवारुल हक, बाढ़ के पूर्व सांसद विजयकृष्ण बाढ़ से, रोसड़ा के पूर्व सांसद रामसेवक हजारी कल्याणपुर से, पूर्व सांसद रामचंद्र पासवान कुशेश्वर स्थान, औरंगाबाद से, सांसद रहे विरेंद्र सिंह नवीनगर से किस्मत आजमा रहे हैं। सांसद से विधायक बनना स्वयं भी इन्हें अच्छा नहीं लग रहा होगा, लेकिन बेरोजगार रहने से तो अच्छा है कि विधायक ही बन जायें, नहीं तो फिर कार्यकर्ता बने रहना तो उनका जन्म सिद्ध अधिकार है।

सियासत में कब मिलती है जगह?

बिहार की राजनीति में पुतुल सिंह एक नया नाम हैं। पुतुल सिंह का चेहरा बिहार की जनता ने इससे पहले कभी नहीं देखा था। बता दें कि पुतुल बांका संसदीय सीट से चुनावी मैदान में हैं। इनके चुनावी मैदान में आने का एकमात्र कारण है, समाजवादी नेता एवं बांका के सांसद दिग्विजय सिंह का असामयिक निधन। यानी महिलाओं या बेटियों को राजनीति में आने के लिए कुछ खास परिस्थितियों का इंतजार करना पड़ता है। जदयू के विक्रमगंज के सांसद अजीत सिंह के एक दुर्घटना में मारे जाने के बाद उनकी पत्नी मीणा सिंह ने उनकी राजनीतिक विरासत को संभाला। मीणा सिंह आज लोकसभा सदस्य हैं। लेकिन इन्हें भी राजनीति में आने के लिए जीवन की एक दुखदायी घड़ी का इंतजार करना पड़ा।
दानापुर से निवर्तमान विधायक आशा देवी, दीघा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहीं पूनम देवी, धमदाहा से लेसी सिंह जैसी कई महिलाएं हैं, जिन्हें पति के असामयिक निधन या हत्या के बाद राजनीति में आना पड़ा। दूसरी तरफ कुछ महिलाएं अपने पति के जेल जाने या कानूनी वजहों से चुनाव नहीं लड़ पाने की वजहों से चुनावी मैदान में खड़ी हैं। यानी बाहुबलियों के द्वारा घूंघट की ओट से वोट की नयी राजनीति की शुरुआत में इन महिलाओं को मोहरा बनाया गया है।  गौरतलब है कि यहां भी महिलाएं राजनीति में तब आई हैं, जब उनकी जिंदगी एक विशेष परिस्थिति से गुजर रही है। सरकार एक तरफ आधी आबादी को अधिकार प्रदान कर सशक्त करने की बात करती है, दूसरी तरफ सरकार में ही बैठे राजनेता यह नहीं चाहते कि लोकतंत्र में बराबर की हिस्सेदारी में उनकी बेटी की भागीदारी भी हो। यह राजनीति भी एक गजब पहेली है, जिसमें जनता तो उलझती ही है, नेता अपने परिवार को भी उलझाने से बाज नहीं आते।

राजनीति में दोहरी नीति बेटी नहीं, बेटों से प्रीति

कौशलेन्द्र प्रियदर्शी
लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए अब्राहम लिंकन ने कहा था, ‘‘जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता का शासन, ही लोकतंत्र है।’’ जो व्यक्ति आम जनता के हक की लड़ाई लड़ेगा वही समाज का अगुआ होगा। लेकिन धीरे-धीरे लोकतंत्र का चेहरा बदला और बड़े ही कायदे से जनता की जमीन पर सियासी घरानों ने अपनी इमारत खड़ी कर दी। यानी जो काम पहले रियासत में होता था, वो आज की सियासत में हो रहा है। अब नेता का बेटा ही नेता होगा और कार्यकर्ता सिर्फ झंडा ढोएगा। इस बार का यह चुनावी संदेश है कार्यकर्ताओं को। नेताओं की तरफ से। लेकिन सवाल है कि नेता का बेटा ही नेता क्यों होगा? बेटियां क्यों नहीं?
 महिला सशक्तिकरण की वकालत करते फिरने वाले राजनेताओं के चेहरे से राजनीति में भी लिंग भेद करने की परंपरा काफी पुरानी रही है। हाल के दिनों में भी कई राजनेताओं ने अपने राजनीति उत्तराधिकारी के लिए जब-जब दावेदारी पेश की है, तो उन्हें बेटे का ही चेहरा दिखा है। मतलब साफ है कि राजनीतिक वंशवाद की प्रथा को आगे बढ़ाने के लिए बेटा का ही कंधा चाहिए। आखिरकार फर्क यहां भी दिख गया। जनता को ठगने
वाले लोग परिवार को भी ठगने से बाज नहीं आ रहे। यह जम्हूरियत के चेहरे को और बदशक्ल करता है। आजादी के बाद भारतीय लोकतंात्रिक व्यवस्था ने  63 बसंत देखे हैं। लेकिन इस व्यवस्था में बेटियों की हिस्सेदारी न के बराबर है। बिहार की राजनीति में तकरीबन बीस वर्षों से लालू यादव का दबदबा रहा है। हां, सामाजिक न्याय की बात करने वाले लालू यादव के सामने राजनीतिक वंशवृद्धि की बात याद आई, तो सात बेटियों और दो बेटों के पिता लालू को अपने बेटियों से काफी कम उम्र का बेटा तेजस्वी यादव ही दिखा। क्रिकेटर तेजस्वी अब राजनीति के पिच पर अपने पापा के स्टाइल में हाथ आजमा रहा है। हालांकि  अभी चुनाव लड़ने में काफी देर है। गौरतलब है कि लालू यादव की कई बेटियां तेजस्वी से उम्र में बड़ी हैं। ऐसी बात नहीं कि इनकी बेटियों की रुचि राजनीति में न के बराबर होगी। इससे साबित तो यही होता है कि राजद सुप्रीमो बेटियों को राजनीति के मैदान में तरजीह नहीं देना चाहते। इसी तरह पूर्व मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह, जगन्नाथ मिश्र, कर्पूरी ठाकुर, दारोगा प्रसाद राय, रामसुंदर दास, पूर्व केंद्रीय मंत्री ललित ना. मिश्र, रामलखन सिंह यादव, अनुग्रह नारायण सिंह, सत्येंद्र नारायण सिंह, रामजयपाल सिंह यादव एवं वर्तमान के कई सांसद डॉ. सीपी ठाकुर, जगदानंद, शिवानंद तिवारी, जगदीश शर्मा जैसे कई राजनेताओं को यह नहीं लगता कि राजनीति के परिवारवाद वाले धंधे में बेटियां भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। भारतीय राजनीति में सबसे ऊंचा राजनीतिक कद रखनेवाले गांधी परिवार ने भी राजनीति करने का दारोमदार अपने बेटे के ही कंधे पर रख छोड़ा।

जाएं तो जाएं कहां?

आमदनी इतनी कम कि किराये के मकान में रहना संभव नहीं। इसलिए मजबूरी में रहना भी जरूरी है। मतलब साफ, जान जाए तो जाए, पर हम कहां जाएं?। यह पटना शहर के कुछ ऐसे लोगों की व्यथा है, जिनके माथे पर मौत कभी भी टपक सकती है। जी हां, पटना के अंदर सरकार द्वारा बनाये गये भवनों एवं क्वार्टरों की एक ऐसी लंबी फेहरिस्त है, जहां सरकारी सेवकों तथा साथ ही अवैध ढंग से रहनेवाले परिवारों की जिंदगी पर पल-पल मौत का पहरा रहता है।
 दिल्ली के लक्ष्मीनगर में हुए हादसे से पहले ही पटना में जर्जर हो चुके मकान के गिरने से कुछ लोग जहां काल के गाल में समा चुके हैं, वहीं कई घायल आज जिंदगी को पटरी पर लाने की जद्दोजहद में जुटे हैं। गौरतलब है कि जून माह में बहादुरपुर हाउसिंग कॉलोनी स्थित एक भवन के गिरने से एक महिला की मौत हो गयी थी। वहीं कुछ लोग घायल हो गये थे। इसी तरह पटना विश्वविद्यालय के सैदपुर कैंपस में एक स्टॉफ क्वार्टर के भरभराकर गिर जाने से सात लोग गंभीर रूप से घायल हो गये। संयोगवश किसी की जान नहीं गयी थी। उल्लेखनीय है कि भूकंप के पहले जोन में पटना के होने के बावजूद इन मकानों का किसी तरह खड़ा रहना महज एक संयोग है। 
हादसा कभी भी हो सकता है। पर, सरकार को इससे दरकार नहीं। शायद हमेशा की तरह सरकार हादसे का इंतजार कर रही है। बहरहाल आवास बोर्ड, भवन निर्माण, नगर निगम के द्वारा भूतनाथ रोड, बहादुरपुर, सैदपुर बैचलर क्वार्टर, बहादुरपुर हाउसिंग कॉलोनी, यारपुर, संदलपुर, पटना सिटी सहित कई जगहों पर जर्जर भवनों का ढांचा खड़ा है, जिसमें लोग वैध और अवैध दोनों तरीके से रह रहे हैं।
    कुछ का रहना जहां मजबूरी है। वहीं कुछ कब्जा जमाकर वहां या तो रह रहे हैं या तो फिर उससे किराया वसूल रहे हैं। जहां तक विश्वविद्यालय कैंपस की बात है, तो वहां विश्वविद्यालय शिक्षकों के लिए बने क्वार्टर में रह रहे शिक्षकों की जान भी आफत में है। इनके द्वारा बार-बार गुहार लगाने के बाद भी क्वार्टरों में पर्याप्त सुधार नहीं किये जा रहे हैं। मरम्मत के नाम पर यदा-कदा खानापूर्ति की जाती रही है।  सवाल यह है कि प्रत्येक भवन की एक उम्र होती है। इसके बाद या तो उसे गिरा दिया जाता है या फिर उसे सील कर दिया जाता है, ताकि वहां कोई रह न सके। लेकिन यहां ऐसा नहीं है। यहां आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी प्रशासन जान-बूझकर मरम्मती का खेल खेलती है और उससे पैसा बनाती है। जर्जर क्वार्टर एक ऐसी दुधारु गाय है, जो भ्रष्ट अधिकारियों के लिए आमदनी का जरिया बन गया है। सरकार आखिर ऐसा क्यों चाहती है? सरकारी कर्मचारियों या आम जनता की जान से खेलने पर उतारु सरकार लाचार है या फिर लालची। आने वाले समय में इसका जबाव देना होगा। क्योंकि आम जनता की जान-माल की सुरक्षा की जिम्मेवारी सरकार पर ही है।

ये हैं लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर

कौशलेन्द्र प्रियदर्शी
लोकतंत्र की सफलता के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारण शिक्षा को माना जाता रहा है। यानी जिस देश या राज्य में शिक्षा का प्रसार जितना ज्यादा होगा, वहां लोकतंत्र उतना ही अधिक सफल होगा। लेकिन जहां के नेता के लिए पढ़ाई ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ के समान हो, तो भला उस राज्य का भविष्य क्या होगा? उल्लेखनीय है कि विधानसभा किसी भी राज्य की आत्मा है। यहां की जनता के द्वारा चुनकर आये जनप्रतिनिधियों के द्वारा राज्य के विकास एवं आम जनता को लाभ पहुंचाने के ख्याल से कानून बनाये जाते हैं। विकास योजनाओं का खाका पहले विधानसभा के पटल पर ही रखा जाता है। तत्पश्चात जनप्रतिनिधियों द्वारा मंजूरी दिए जाने के उपरांत उसे जमीनी तौर पर अमली जामा पहनाया जाता है। लेकिन, अहम सवाल है कि आजकल के जनप्रतिनिधियों के पास शिक्षा के नाम पर सिर्फ साक्षर होने का विशेषण भर ही है। जिन्हें पूरी तरह फाइल तक नहीं पढ़ने आता हो, वे विकास का ब्लू प्रिंट  का खाका क्या तैयार कर पायेंगे? गौरतलब है कि आज से दो दशक पहले बंदूक के सहारे विधानसभा में पहुंचने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई। इसी बढ़ोत्तरी   ने निरक्षरों को भी विधानसभा के देहरी के अंदर प्रदेश करने का मौका दिया। कारण कि अधिकांश अपराधी चरित्र के विधायक या तो निरक्षर थे या फिर किसी तरह अपना नाम भर लिखना जानते थे। तभी बिहार पहली बार महिला मुख्यमंत्री से दो चार हुआ, जो सिर्फ आठवीं पास थीं। बाद के दिनों में अपराधियों और किसी-किसी तरह से साक्षर लोगों को अधिकृत पार्टियों के द्वारा टिकट देना एक प्रचलन बन गया। इसी प्रचलन का नजीर बना है पंद्रहवीं बिहार विधानसभा का चुनाव। नेशनल इलेक्शन वॉच के बिहार चैप्टर की रिपोर्ट के अनुसार, पांचवें चरण तक के चुनाव में 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 217 सीटों पर प्रमुख दलों के द्वारा करीब दो दर्जन निरक्षर लोगों को चुनावी मैदान में उतारा गया है। निर्दलीय प्रत्याशियों को जोड़ देने पर यह संख्या सैकड़ा से पार कर जाती है। प्रत्याशियों द्वारा चुनाव आयोग को दिये गये शपथ पत्र में इनलोगों ने शिक्षित होने के बारे में जो लिखा है, वह प्रमाणित करता है कि ये लोग ‘लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर’ हैंै। वहीं प्रमुख दलों के 22 प्रत्याशियों ने तो शिक्षा के बारे में कोई जानकारी ही नहीं दी है। बता दें कि पांचवें चरण तक के चुनाव में कांग्रेस ने 05, बीजेपी ने 04, जदयू ने 06, राजद ने 05, एलजेपी ने 01, बीएसपी ने 11 ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दिये, जो किसी तरह अक्षर पढ़ पाते हैं। इसी तरह कांग्रेस, भाजपा, राजद, जदयू और बसपा ने कुल मिलाकर 08 पांचवीं पास, 44 आठवीं पास, 107 दसवीं पास और 158 बारहवीं पास लोगों को टिकट दिये हैं। जहानाबाद के जदयू प्रत्याशी अभिराम शर्मा महज दशवीं कक्षा पास हैं। जदयू ने तो 2 निरक्षरों को पार्टी का उम्मीदवार बनाया एवं 6 साक्षरों व 9 आठवीं पास, 24 दसवीं पास, 20 बारहवीं पास लोगों को टिकट दिया है। इसी तरह राजद ने भी दो निरक्षर, 05 साक्षर, एक पांचवीं पास, पांच आठवीं पास, 25 दसवीं पास और 21 बारहवीं पास लोगों को चुनाव लड़ने का पास थमा दिया है। इन सबों के बीच कुछ ऐसे प्रत्याशी हैं, जिन्होंने अपना शैक्षणिक विवरण देना आवश्यक नहीं समझा है। जदयू के पूर्णिमा यादव, वैद्यनाथ सहनी, सुबोध राय, तो राजद के मजहर आलम, बृजकिशोर सिंह, वहीं बीजेपी के विनय सिंह, कुमार शैलेंद्र सहित लोगों ने शिक्षा को अहमियत नहीं दी है। वहीं कई लोग सिर्फ साक्षर हैं। नेशनल इलेक्शन वॉच के बिहार चैप्टर के संयोजक अंजेश कुमार कहते हैं कि पार्टियों को प्रत्याशियों के शैक्षणिक योग्यता से  मतलब नहीं। उन्हें तो धन, बल और बाहुबल युक्त ऐसे प्रत्याशी चाहिए, जो चुनाव जीत सके।

इतिहास बन गई चैदहवीं विधानसभा

कौशलेन्द्र प्रियदर्शी
पटना। किसी भी राज्य की आत्मा होती है विधानसभा। जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि इसी आत्मा के भीतर बैठकर जनकल्याण के लिए कानून बनाते हैं। बिहार विधानसभा के चैदह बसंत पूरे हो गये। चैदहवीं विधानसभा इतिहास के पन्नों में इजाफा कर गया। इस इतिहास में कई बार बिहार की जनता के लिए जहां नई ईबादत लिखी गयी, वहीं कई ऐसे मौके आये जब कुर्सियां राजनेताओं के ऊपर  बैठती नजर आयी, वहीं चप्पल आसन की तरफ उछलता नजर आया। कई माननीय  कुर्सी रहने के बावजूद टेबुल पर बैठकर अपनी बातों को कहते नजर आये, तो कइयों ने संयम के साथ सभा की गरिमा को कायम रखने के प्रयास किये। लेकिन, विडंबना देखिए कि पहले बदनामी की सुर्खियां बटोर चुके बिहार का चेहरा जब राष्ट्रीय स्तर पर तेजी से बदल रहा था, तब इसी चैदहवीं विधानसभा के आखिरी सत्र में कुछ सदस्यों ने सदन में ही रात बिताकर बनती बात को बिगाड़ने का भरपूर प्रयास किया।
    इतिहास की परिभाषा है कि ‘इतिहास भूत और वर्तमान के बीच अर्थपूर्ण संवाद है।’ चैदहवीं विधानसभा में भी कुछ ऐसे कानून बनाये गये, जो संभवतः वर्षों तक सिर्फ देश के लिए ही नहीं, बल्कि विश्व भर के लिए एक नजीर बना रहेगा। विश्व में पहली बार गणतंत्र की स्थापना करने वाले बिहार ने फिर एक बार पंचायतों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण देकर ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ को चरितार्थ किया। शायद इस श्लोक के अर्थपूर्ण प्रभाव पर अमल करने की प्रक्रिया बना दिया। उल्लेखनीय है कि चैदहवीं विधानसभा का पहला सत्र 28 नवंबर, 2005 को शुरू हुआ, जबकि पंद्रहवीं व आखिरी सत्र 23 जुलाई, 10 को। इस दौरान सदन की 175 बैठकें आयोजित की गईं और 122 कानूनों ने जन्म लिए। इसमें कुछ कानून जनकल्याण के लिए, तो कुछ स्वकल्याण के लिए बनाये गये। इन्हीं कानूनों के तहत माननीय सदस्यों ने अपना वेतन वृद्धि भी किया तथा साथ ही तेरहवीं विधानसभा के सदस्यों के लिए निर्वाचित विधायकों को चुनाव आयोग के अधिसूचना जारी होने की तिथि से ही सदस्यों का दर्जा दिलवाकर मित्रों के लिए नेक काम किया।
    28 मार्च, 2006 को दूसरे सत्र में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के द्वारा विधानमंडल के संयुक्त संबोधन ने भी इतिहास रचने का काम किया। भ्रष्टाचारियों की संपत्ति जब्त करने के कानून ने पूरे देश में बिहार की बनती छवि व ईमानदार चेहरा होने का संदेश दिया। वहीं 1993 के कानून में संशोधन करते हुए पंचायत में अनुसूचित जाति को 16 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के लिए एक प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर न्याय के साथ विकास के जुमले को चरितार्थ किया। पंचायत में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण तथा बिहार भूमि सुधार संशोधन विधेयक, 2009 को मंजूर करके भूमिहीनों के बीच बांटी जानेवाली जमीन का पचास प्रतिशत हिस्सा महिलाओं को देने की व्यवस्था करना भी सामाजिक न्याय के क्षेत्र में एक सशक्त हस्ताक्षर बना। विधानसभा के पांचवें सत्र में यूनिवर्सिटी आॅफ नालंदा विधेयक को मंजूरी प्रदान कर पुरातन शिक्षा के पुनर्जागरण का यह प्रयास आने वाले दिनों में बिहार के भविष्य को बेहतर करेगा। ये बातें सकारात्मक पक्ष की थीं, जहां बिहार हर बार एक नई लकीर खींचते नजर आया। दूसरी तरफ पांचवें सत्र से विपक्षी दलों का उग्र रुख अपनाना भी अपने आप में कम नहीं। आखिरी सत्र में 67 विधायकों के निलंबन ने सब कुछ किये कराये पर पानी फेर दिया।
    प्रश्नकाल के दौरान हंगामा करना एक आदत-सी बन गयी। वहीं विपक्ष के द्वारा वाकआउट करना एक नियम। परिणाम यह हुआ कि गंभीर मुद्दों पर चर्चा नहीं हो पायी। बैठकों में विपक्षी नेताओं की कम उपस्थिति भी सालता रहेगा। सीएजी रिपोर्ट पर सीबीआई जांच कराने के आदेश को लेकर विधायिका और न्यायपालिका आमने-सामने हो गये। न्यायपालिका का उसकी औकात का अहसास भी कराया गया। विधानसभा अध्यक्ष को हटाने को लेकर भी विपक्षी सदस्यों ने खूब बवाल काटा। कुल मिलाकर इस चैदहवीं विधानसभा ने जहां देश को कई संदेश दिए, वहीं कुछ माननीय के कारनामों ने बदनामी के पंचनामा में बिहार का नाम दर्ज करा दिया। नीतीश कुमार एक बार फिर प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुए हैं। पंद्रहवीं विधानसभा का जन्म हो चुका है, लेकिन विडंबना देखिए, विपक्षी पार्टी के लायक किसी दल के पास संख्या ही नहीं है।

Tuesday, December 7, 2010

बिहार के चार सिंह घायल

बिहार के चार सियासती सिंह चुनावी रणक्षेत्र में बूरी तरह घायल होकर फिलहाल अपने राजनीतिक मांद में शरण ले रखे हंै। इन चार सिंहों ने बिहार विधानसभा चुनाव से पहले जब हुंकार भरना शुरू किया था तो लगा था कि सुशासन पर कयामत पर कहर टूटेगा। लेकिन हुआ बिल्कुल विपरीत। पहले इन चार सिंहों से आपका परिचय करा दें।
पहले सिंह है ललन सिंह, दूसरे प्रभुनाथ सिंह, तीसरे अखिलेश सिंह और चैथा उमाशंकर सिंह। जहां तक ललन सिंह और प्रभुनाथ सिंह की बात है तो दोनों कभी तीर वाले सरकार के यार थे। वहीं वर्तमान सांसद उमाशंकर सिंह एवं अखिलेश सिंह लालटेन ढ़ो रहे थे।  राजनीति के मैदान में जब अपने मन की बात नहीं चलने लगी तो वर्तमान सांसद ललन सिंह ने जदयू में रहते हुए ही चुनाव से करीब चार माह पहले से ही अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। वहीं नीतीश को बड़े भाई के रूप में मानने वाले प्रभुनाथ भी सम्मेलनों और सभाओं के द्वारा सुशासन के खिलाफ झंडा  बुलंद कर रहे थे और बदला साधने के लिए चुनाव के इंतजार में थे। वहीं दूसरी तरफ  वर्षों से लालटेन थामे एवं राजद में सवर्ण नेता के रूप में पहचान बना चुके अखिलेश सिंह चुनावी घोषणा के बाद तक लालू यादव का गुणगान करते फिर रहे थे वहीं वर्तमान सांसद एवं राजद नेता उमाशंकर सिंह को भी  चुनाव से पहले तक लालू से कोई गिला न था। बढ़ते वक्त के साथ चुनाव ने बिहार के राजनीतिक दरवाजे पर दस्तक दिया और इन चार सिंहों की दहार में बिहार की राजनीतिक समीकरण को अपने हिसाब से टटोलना शुरू कर दिया। परिणाम यह हुआ कि ललन सिंह ने जदयू में रहते हुए नीतीश सरकार को हराने के लिए एड़ी चोटी एक कर दिया वहीं 2009 के संसदीय चुनाव में महाराजगंज से मात खा चुके नीतीश को  अपना बड़ा नाथ मानने वाले प्रभुनाथ ने पूर्व के अपने सबसे बड़े राजनीतिक दुश्मन राजद सुप्रीमो लालू  प्रसाद से ब्रह्म बाबा का लस्सा लगाकर  हाथ मिला लिया।  ललन जहां पंजा के सहारे तीर को मड़ोरने की कोशिश में लगे वहीं प्रभुनाथ लालटेन के सहारे तीर को तोड़ने के प्रयास में। लालू को जहां यह लग रहा था कि प्रभुनाथ के राजद खेमे में आने से सवर्ण वोट का एक बड़ा तबका यानी राजपूतों का समर्थन राजद को मिलेगा वहीं कांग्रेसियों को यह महसूस हो रहा था कि नीतीश के सबसे बड़े यार को अपने पाले में करके चुनावी दांव को पलट लेंगे। दूसरी तरफ लालू के ही अजीज एवं पंद्रह वर्षों तक लालू चालीसा में लगे रहे अखिलेश सिंह ने अचानक चुनाव के समय अपने ही राजनीतिक आका को सवर्ण विरोधी बताते हुए हाथ के साथ हो लिये वहीं राजद सांसद उमाशंकर सिंह अपने सबसे बड़े राजनीतिक विरोधी प्रभुनाथ को राजद के पाले में आया देख लालू से ही वगावत कर बैठे। इन चारों सिंहों ने मोर्चाबंदी के लिए भले ही अलग- अलग राजनीतिक दालानों को चुना परंतु इन चारों का लक्ष्य एक ही था नीतीश हराओ। 23 नवंबर तक राजनीतिक पलटी मार चुके इन सिंहों ने अपने-अपने वर्तमान आका को खुश करने के लिए खूब गर्जना की। इनके जुबानी हमले ने बड़े-बड़े राजनीतिक विश्लेषकों को यह कहने पर विवश कर दिया था कि  इस बार के चुनाव में क्या होगा कुछ पता नहीं चलता। चुनाव से पहले आये एग्जिट पोल को ये लोग मीडिया की डपोरशंखी करार देते थे। लेकिन कहा जाता है कि गरजने वाला बादल बरसता नहीं। हुआ भी कुछ ऐसा ही। 24 नवंबर की सुबह बिहार के राजनीतिक मैदान में  जब तीर और कमल ने अपने विरोधियों का शिकार करना शुरू किया तो शाम होते-होते लालटेन , पंजा और बंगले के अंदर से कराहने तक की आवाज नहीं मिल रही थी।  लालटेन बुझ गया था। पंजा लहुलूहान हो गया था तो बंगला तीर से पैदा हुए बंवडर की भेंट चढ़ चुका था। बात जहां तक इन चार सियासती सिंहों की है तो तीन, ललन, प्रभुनाथ और अखिलेश ने मांद में शरण ले लिया वहीं राजद के बूरी हार की खबर सुनने का आसरा लगाए बैठे  बागी सांसद उमाशंकर सिंह ने राजद सुप्रीमो को विकास एवं सवर्ण विरोधी करार देते हुए लालू के नये दोस्त प्रभुनाथ सिंह पर निशाना साधा। उन्होंने यहां तक कह दिया कि लालू जिसे सिंह समझे थे वह सियार निकला। इतना ही नहीं चारों सिंह के सारे के सारे चेले चुनावी मैदान में चारो खाने चित रहे । बेचारे अब करें तो क्या करें? स्थिति ऐसी विपरीत होगी अंदाजा इन्हें नहीं था। चलिए यह वक्त की मार है  फिलहाल इनके लिए मांद ही उपयुक्त जगह है।