Sunday, January 1, 2017

नया काल नया साल

(मैं काल हूँ,,मैं नया साल हूँ) 2017 ,,मेरे द्वारा रचित,,,,,पहली कविता आपलोगों को समर्पित है,,,,,
मैं काल हूँ।
मैं नया साल हूँ।
मैं ही समय हूँ।
मैं ही घण्टा और मिनट हूँ।
मैं ही सेकेण्ड और सेकेण्ड का अशांश हूँ।।
जिंदगी और मौत का सारांश हूँ।।
मैं काल हूँ ।
मैं नया साल हूँ।।
मैं ही वेद ।
मैं ही गीता ।
बाइबिल और कुरान हूँ।
सर्गों से भरा महाभारत ।
श्लोकों में बसा पुराण हूँ।।।
मैं काल हूँ ।
मैं नया साल हूँ।।।
मैं ही अयोध्य्या।
मैं ही वृंदावन।
मैं ही रामेश्वरम।
मैं ही हरिद्वार हूँ।
मैं ही काबा।
मैं ही अजमेर शरीफ ।
मैं ही मक्का का द्वार हूँ।।
मैं काल हूँ ।
मैं नया साल हूँ।।
मैं ही भारत ।
मैं ही अफगानिस्तान।
मैं ही सीरिया ।
मैं ही पाकिस्तान हूँ।
मैं हूँ खुशियों से भरा आंगन।
मातम में समाया श्मशान हूँ।।
मैं काल हूँ ।
मैं नया साल हूँ।।
मैं ही शांति का समंदर।
मैं ही सुनामी और बवंडर।
मैं हूँ फूलों का बाग़।
मैं हूँ धरती के नीचे की आग।
मैं ही ब्रम्हांड।
मैं ही भूचाल हूँ
मैं काल हूँ
मैं नया साल हूँ।।।
मैं ही खिलखिलाता बचपन।
जोश से भरा जवानी हूँ।
मैं ही दुःख दर्द भरा बुढापा।
यानी जिंदगी की कहानी हूँ।
मैं ही माता ।
मैं ही पिता।
मैं ही नाना व नानी हूँ।
मैं काल हूँ।
मैं नया साल हूँ।।।
हे इंसान ।
सुंदर बना लो अपना जहान।
अहंकार, लालच ,ईर्ष्या, द्वेष ।
में पड़कर मत बनो हैवान।
          वक्त की हथेली पर।
        फिसल रहा साल दर साल।
       चेत जाओ।
        नजदीक आ रहा।
       मौत का काल।।।।।।
,,,,,,,,,,,,
मैं काल हूँ ,,,,,,,,,,
मैं नया साल हूँ।।।।।।।।
                     कौशलेंद्र प्रियदर्शी
                    01 जनवरी 2017

Monday, February 22, 2016

टी वी पत्रकारिता कावर्तमान दौर संक्रमण काल का है ,,,,आज मीडिया किसी की नज़र में ग्लैमर भर है ,,किसी की नज़र में पेड न्यूज़ का धंधा है ,,,,,,,,,,किसी की नज़र में कारपोरेट सेंसरशिप का शिकार है,,,,,किसी को लगता है खबरें विज्ञापन से नियंत्रित होती हैं,,,,,,किसी को लगता है की फलना मीडिया हाउस में किसी ख़ास राजनितिक दल का दबदबा है,,,,,,,,वैसे नेता जो कल तक या आज भी ऑफ दी रेकॉर्ड बत्तीसी निपोर कर मीडिया वालों की चिरौरी करते रहते हैं,,वो भी वक्त मिलते हीं मीडिया के बारे बकवास करने से बाज नहीं आते।आखिर ऐसा क्यूँ ????? एक तो मीडिया की दुनिया स्वनियंत्रण की बात करती है,,,,वैसा कुछ है भी और नहीं भी,,,,,मीडिया मामलों के जानकार अनिल चमड़िया की माने तो एक ऐसा माहौल निर्मित हो चूका है जिसमे स्व सेंसरशिप की स्थिति दिखाई पड़ती है,,,,,लोकतन्त्र में कई तरह के विचारों व मतों को मीडिया में जगह न मिलने की शिकयातें बढ़ी हैं ,,,,,,,,,जैसे फिलहाल जे एन यु कैम्पस काण्ड को देखें तो घटना को एक खबर के दृष्टिकोण से कम टी आर पी के हिसाब से ज्यादा तरजीह दी गयी,,,,,,,,परिणाम यह हुआ की अपने अपने विचारों की जमीन पर अपने अपने नज़रिये के अनुसार लोगो ने विभिन्न मीडिया हाउस और पत्रकारों को अलग अलग विचारों का पैरोकार बता दिया,,,,,,ये कोई नई बात नहीं,,,,,,, मीडिया हाउसों एवं लुटियंस ज़ोन के पत्रकारों का सत्ता से सरोकार के किस्से जगजाहिर रहे हैं,,,,विरोध करने पर भी बवाल मचता रहा है,,,आजकल ,,,,,प्राइम टाइम का टेंटुआ तो तो हर कोई ऐसे पकड़ लेता है जैसे उसकी भूली हुई लंगोट हो,,,,मतलब देर शाम चलने वाली बहस का डोज़ हर तथाकथित बुद्धिजीवियों पर ऐसा असर दिखाता है बगैर 24 घण्टे के उतरता ही नहीं,,,,,देशभक्त और देशद्रोही जैसे विशेषण अपरिग्रहित आभूषण की तरह जबरन एक दूसरे को पहना ओढ़ाकर नेता और बुद्धिजीववि बड़े मजे से आम जनता को बहस के दलदल में फंसाकर अपने- अपने घर चले जाते है,,,,,, कुल मिलाकर इससे इनकार नहीं किया जा सकता है की विचारों के नज़रियागत अंतर्विरोध से आज की पत्रकारिता गुजर रही है,,,,,सम्पादक सवालों के घेरे में हैं जाहिर है खबरों की गुणवत्ता का गुना- भाग जरूर होगा,,,उपभोक्तावादी हो चुके समाज भी खबरों को एक ऐसे वस्तु की तरह इस्तेमाल करना चाहता है जो उसे संतुष्ट कर सके,,,,,इसी संतुष्टि को तुष्ट करने के लिये रक नामी गिरामी पत्रिका को प्रत्येक छः माह पर सेक्स सर्वे निकालना पड़ता है, जिसमे महिलाओं और पुरुषो से सेक्स आधारित सवालों के जवाब लिये जाते हैं ,फिर बाद में औसत निकालकर उसे 8 से दस पन्नों में बड़े बेबाकी से प्रकाशित किया जाता है,,,लोग -बाग़ भी उसे हाथो हाथ लेते हैं लेकिन यह कहने से नहीं चूकते की ,,इंडिया---- जैसी पत्रिका को ये सब नहीं निकालना चाहिये,,,गजब ,,,,,सवालों का उठना अच्छा है लेकिन नेता से लेकर तथाकथित बुद्धिजीवी भाइयों तक मीडिया में उठाये गए मुद्दे को अपने -अपने उपभोग के अनुसार भोगने की कोशिश करते तब झंझट शुरू होता है,,,,,,मीडिया को हर कीमत पर स्व नियंत्रण करना होगा,, नहीं तो सवालो की कई और खिड़कियाँ मीडिया के घरों की तरफ खुलेंगी ,,,,,,देशभक्ति दिखाना या देशभक्त होना कोई पाप नहीं है,,,,,,,लेकिन नियंत्रण के साथ ,,,,लोगों को भी चाहिये कि जो ऑन स्क्रीन जो बातें सामने आ रही हैं उसे ऐसा न समझें की उसके स्वभाव में ऐसा है ,,तात्कालिक परिस्थितियों और जरूरतों के मद्देनज़र भी बहुत कुछ दिखाना और चलाना पड़ता है,,,,,

टी वी पत्रकारिता का
वर्तमान दौर संक्रमण काल का है ,,,,आज मीडिया किसी की नज़र में ग्लैमर भर है ,,किसी की नज़र में पेड न्यूज़ का धंधा है ,,,,,,,,,,किसी की नज़र में कारपोरेट सेंसरशिप का शिकार है,,,,,किसी को लगता है खबरें विज्ञापन से नियंत्रित होती हैं,,,,,,किसी को लगता है की फलना मीडिया हाउस में किसी ख़ास राजनितिक दल का दबदबा है,,,,,,,,वैसे नेता जो कल तक या आज भी ऑफ दी रेकॉर्ड बत्तीसी निपोर कर मीडिया वालों की चिरौरी करते रहते हैं,,वो भी वक्त मिलते हीं मीडिया के बारे बकवास करने से बाज नहीं आते।
आखिर ऐसा क्यूँ  ?????
एक तो मीडिया की दुनिया स्वनियंत्रण की बात करती है,,,,वैसा कुछ है भी और नहीं भी,,,,,मीडिया मामलों के जानकार अनिल चमड़िया की माने तो एक ऐसा माहौल निर्मित हो चूका है जिसमे स्व सेंसरशिप की स्थिति दिखाई पड़ती है,,,,,लोकतन्त्र में कई तरह के विचारों व मतों को मीडिया में जगह न मिलने की शिकयातें बढ़ी हैं ,,,,,,,,,जैसे फिलहाल जे एन यु कैम्पस काण्ड को देखें तो घटना को एक खबर के दृष्टिकोण से कम टी आर पी के हिसाब से ज्यादा तरजीह दी गयी,,,,,,,,परिणाम यह हुआ की अपने अपने विचारों  की जमीन पर अपने अपने नज़रिये के अनुसार लोगो ने विभिन्न मीडिया हाउस और पत्रकारों को अलग अलग विचारों का पैरोकार बता दिया,,,,,,ये कोई नई बात नहीं,,,,,,, मीडिया हाउसों एवं लुटियंस ज़ोन के पत्रकारों का सत्ता से सरोकार के किस्से जगजाहिर रहे हैं,,,,विरोध करने पर भी बवाल मचता रहा है,,,आजकल ,,,,,प्राइम टाइम का टेंटुआ तो तो हर कोई ऐसे पकड़ लेता है जैसे उसकी भूली हुई लंगोट हो,,,,मतलब देर शाम चलने वाली बहस का डोज़ हर तथाकथित बुद्धिजीवियों पर ऐसा असर दिखाता है बगैर 24 घण्टे के उतरता ही नहीं,,,,,देशभक्त और देशद्रोही जैसे विशेषण अपरिग्रहित आभूषण की तरह जबरन एक दूसरे को पहना ओढ़ाकर नेता और बुद्धिजीववि बड़े मजे से आम जनता को बहस के दलदल में फंसाकर अपने- अपने घर चले जाते है,,,,,,
             कुल मिलाकर इससे इनकार नहीं किया जा सकता है की विचारों के नज़रियागत अंतर्विरोध से आज की पत्रकारिता गुजर रही है,,,,,सम्पादक सवालों के घेरे में हैं जाहिर है खबरों की गुणवत्ता का गुना- भाग जरूर होगा,,,उपभोक्तावादी हो चुके समाज भी खबरों को एक ऐसे वस्तु की तरह इस्तेमाल करना चाहता है जो उसे संतुष्ट कर सके,,,,,इसी संतुष्टि को तुष्ट करने के लिये रक नामी गिरामी पत्रिका को प्रत्येक छः माह पर सेक्स सर्वे निकालना पड़ता है, जिसमे महिलाओं और पुरुषो से सेक्स आधारित सवालों के जवाब लिये जाते हैं ,फिर बाद में औसत निकालकर उसे 8 से दस पन्नों  में बड़े बेबाकी से प्रकाशित किया जाता है,,,लोग -बाग़ भी उसे हाथो हाथ लेते हैं लेकिन यह कहने से नहीं चूकते की ,,इंडिया---- जैसी पत्रिका को ये सब नहीं निकालना चाहिये,,,गजब ,,,,,सवालों का उठना अच्छा है लेकिन नेता से लेकर तथाकथित बुद्धिजीवी भाइयों तक मीडिया में उठाये गए मुद्दे को  अपने -अपने उपभोग के अनुसार भोगने की कोशिश करते तब झंझट शुरू होता है,,,,,,मीडिया को हर कीमत पर स्व नियंत्रण करना होगा,, नहीं तो सवालो की कई और खिड़कियाँ मीडिया के घरों की तरफ खुलेंगी ,,,,,,देशभक्ति दिखाना या देशभक्त होना कोई पाप नहीं है,,,,,,,लेकिन नियंत्रण के साथ ,,,,लोगों को भी चाहिये कि जो ऑन स्क्रीन जो बातें सामने आ रही हैं उसे ऐसा न समझें की उसके स्वभाव में ऐसा है ,,तात्कालिक परिस्थितियों और जरूरतों के मद्देनज़र भी बहुत कुछ दिखाना और चलाना पड़ता है,,,,,

Tuesday, December 14, 2010

घोषणा पत्र एक अवैध संतान

हमारे मुल्क ने मौलिक ढंग से सोचना ही बंद कर दिया है। सच तो यह है कि हमने एक अनैतिक समाज बना लिया है। दुनिया में जहां भी नैतिक मूल्य नहीं रहे, जहां के नेताओं के पास विजन नहीं रहा, वे मुल्क खत्म हो गये। पांच हजार वर्षों की दुनिया की सभ्यता को पलट लीजिए, अनेक दृष्टांत मिल जायेंगे। उपरोक्त बातें डॉ. राम मनोहर लोहिया ने 1953 में उस्मानिया विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए कही थीं। लोहिया का वक्तव्य इतिहास के पन्नों में पड़ा आंसू पोछने पर विवश है। दूसरी तरफ आजाद भारत में ठीक चुनाव से पहले राजनीतिक दलों द्वारा घोषणा पत्र के माध्यम से जनता को पार्टी के छलिया विजन या वायदे से अवगत कराने का खेल भी जारी है।  राजनीतिक दलों द्वारा जारी किये गये घोषणा पत्र एक वैसे अवैध संतान की तरह होते हैं, जिसे जोश या फिर मजबूरी में जन्म तो दे दिया जाता है, पर बाद में जन्म देने वाला उसे जन्म लेते ही ऐसी जगह फेंक देना चाहता है जहां यह पता नहीं लग पाये कि वाकई ये संतान किसकी है? मैं अन्य राज्यों की बात नहीं करता। परंतु, खासकर बिहार के मामलों में ऐसा ही होता रहा है। पंद्रहवीं विधानसभा का चुनाव अपने चरम पर है। सत्ता और विपक्ष में रही पार्टियों ने अपने-अपने घोषणा पत्र जारी कर दिये हैंं। केंद्र में सरकार चला रही एक पार्टी, जो बिहार में सर्जरी के मेज पर पड़ी है, उसने भी पहले चरण के चुनाव के बाद अपने राजनैतिक वायदों का सामूहिक लिखित वक्तव्य जारी कर दिया। लेकिन क्या भरोसा किया जाए कि एक बार इन तमाम राजनैतिक दलों ने अवैध संतानों को ही जन्म दिया है, जो सत्ता में आने के बाद ही कुम्हलाने लगेंगे। बिहार की जनता देख रही है कि नेता आसमान से प्रकट होते हैं, फिर शुरु हो जाता है उनका मायावी मकड़जाल से भरा शब्दों का ताल, जुवानी बातें। एसी कमरों और फाइव स्टार होटलों में बैठकर बनाये गये घोषणा पत्रों को जनता के बीच बांटा भी नहीं जाता। यह सिर्फ नेताओं और पत्रकारों तक सीमित रह जाता है।
 बिहार में एक दल ने तो सरकार आने पर पांच वर्षों में पांच लाख युवकों को नौकरी देने की बात कर दी है। जब उनसे इस संबंध में यह पूछा गया कि नौकरी देंगे कहां से, तो उनका जवाब था, समय आने पर सब कुछ ठीक हो जाएगा। इसी तरह सभी दलों ने स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग, बिजली, पानी के मामले में बिहार को रानी बना देने की बात कही है। कोई जनता से अपना पारिश्रमिक मांगते फिर रहा है, तो कोई यह विलाप कर रहा है कि भूल हुई सो माफ करना। एक बार फिर से मौका देकर देखो, चमका नहीं दिया तो फिर कहना। खैर, बिहार की जनता इनलोगों के चरित्र से वाकिफ है। हद तो तब हो गई, जब वोट की राजनीति ने गरीब सवर्णों के लिए एक को दस फीसदी आरक्षण का वायदा करने पर विवश किया, तो एक गरीब सवर्णों की समाज में स्थिति को लेकर आयोग बनाने की बात कह दी। भला सोचिए कि बिहार की सबसे बड़ी समस्या भूमि सुधार पर बने आयोग ने जब इनकी सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, तो अब उसके बारे में बोलने को तैयार भी नहीं। वहीं बड़े भाई ने तो इस मुद्दे पर सरकार ही बना ली थी और पंद्रह साल सिर्फ शब्दों के मायाजाल पर सत्ता में रहे। पर जमीन का सवाल आज भी जमीन पर ही पड़ा है। उसकी सुध लेने वाला ठीक अवैध संतान की तरह है। इसमें कोई शक नहीं कि घोषणा पत्र किसी दल के राजनैतिक सोच का पैमाना होता है, लेकिन तभी तक जब चरित्र और विचार समान होते हैं।
    आज का घोषणा पत्र सिर्फ एक नकाब है, जो नवाब बनने से पहले तक नेता अपने चेहरे और चरित्र पर टांगे रहता है और नवाब बनते ही उसे झटक देता है। जनता ठगी सी देखती रह जाती है। ठीक कहा गया कि नेता वही है, जो वोट मैनेजरी में माहिर हो। मैनेजरी बने रहने के लिए यह जरुरी है कि जनता वास्तविक सवालों के बजाए भावनाओं, जातियों और धर्म के मुद्दों पर मगजमारी करते हैं। हालांकि इस बार का चुनावी परिवेश कुछ अलग है। विकास को वोट का लक्ष्य नहीं मानने वाले लोग भी विकास की बातें करते फिर रहे हैं। अलबत्ता अल्पसंख्यक उपमुख्यमंत्री का स्वांग रचनेवाले तथाकथित दलित उद्धारक नेता अभी भी खुल्लमखुल्ला एलान कर रहे हैं कि चुनाव में जीत और हार सामाजिक समीकरणों के आधार पर होता है। उन्हें गुमान है कि हमने एक विभाग के मामले में बिहार का खूब विकास किया है। चलिए अपनी-अपनी समझ है। नेता और राजनीतिक दल घोषणा रूपी अवैध संतानों को जन्म देने से पहले विचार करें, फिर उसका विस्तार करें अन्यथा जनता ऐसी घोषनाओं को हराम का नाम देने को बाध्य हो जाएगी।

Monday, December 13, 2010

सियासत में श्रीमती बाहुबली

श्रीमान बाहुबली के जुर्म की काली किताब कचहरी में खुलने के बाद कानून ने उनके उड़ान पर विराम लगा दिया, इनमें से कई सजायाफ्ता हो गये, कई जेल में हैं तथा कुछ लोग जमानत पर बाहर। यह कानून का दाव है, लेकिन सियासत का शौक जेहन से जाने का नाम न ले रहा है। इसी का परिणाम है कि सजायाफ्ता एवं जेल में बंद कुछ बेबस बाहुबलियों ने अपनी-अपनी श्रीमतियों के सहारे सियासत की पंद्रहवीं जंग से जूझने का मन बनाया है। यानी लोकतंत्र में दहशत का खेल होगा, लेकिन पर्दे के पीछे से। हालांकि पहले से भी कई श्रीमती बाहुबली अपने-अपने श्रीमान बाहुबलियों की बदौलत विधानसभा का चैखट लांघ चुकी हैं। खगड़िया के पूर्व बाहुबली विधायक रणवीर यादव की पत्नी पूनम यादव, स्व. बूटन सिंह की पत्नी लेसी सिंह, जेल में बंद अवधेश मंडल की पत्नी बीमा भारती जैसी महिला विधायक उदाहरण मात्र हैं।
    चुनाव की तिथियां तेजी से सरकने के साथ ही 38 जिलों के विधानसभा क्षेत्रों में सजायाफ्ता क्षत्रपों ने सियासत करना शुरू कर दिया है। इससे राजनीतिक दलों को भी गुरेज नहीं। गौरतलब है कि बिहार के चुनाव में कुछ बेहतर करने का प्रयास कर रही कांग्रेस ने अपने चुनावी अभियान की शुरुआत पार्टी युवराज से करवा दिया है। युवराज यानी राहुल गांधी। राहुल गांधी ने पिछले पांच सितंबर को समस्तीपुर और सहरसा में दो जनसभाओं को संबोधित किया था। बता दें कि सहरसा की जनसभा में युवराज के आजू-बाजू बैठनेवालियों में कोशी के दो बाहुबलियों आनंद मोहन एवं राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की पत्नी क्रमशः लवली आंनद एवं रंजीता रंजन थीं। कांग्रेस के अंदर इनकी सक्रियता साफ देखी जा रही है। चर्चा है कि पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन मधेपुरा के बिहारीगंज से या फिर पूर्णिया के वायसी से चुनाव लड़ना चाहती हैं, वहीं आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद महिषी विधानसभा से जोर आजमाइश करेंगी।
    इधर हत्या की सजा के जुर्म में उम्र कैद काट रहे मुन्ना शुक्ला अपनी पत्नी अन्नु शुक्ला को लालगंज से चुनाव मैदान में उतारने को तैयार हैं। उल्लेखनीय है कि श्री शुक्ला तीन बार विधायक रह चुके हैं। पटना से सटे मोकामा विधानसभा क्षेत्र में भी सजा काट रहे ललन सिंह की पत्नी सोनम देवी का चुनाव लड़ना तय है। इनका सामना वर्तमान बाहुबली विधायक अनंत सिंह से होगा। दानापुर से पूर्व बाहुबली स्व. सत्यनारायण सिंह की पत्नी आशा देवी जो वर्तमान जनप्रतिनिधि हैं, चुनाव मैदान में भाजपा के टिकट पर दोबारा चुनाव लड़ेंगी। छपरा मढौरा से कांग्रेस के टिकट पर बाहुबली मुन्ना ठाकुर की पत्नी शोभा देवी का चुनाव लड़ना तय माना जा रहा है। इसी तरह जेल में बंद रणवीर यादव की पत्नी वर्तमान विधायक पूनम देवी का खगड़िया से, जेल में ही बंद बाहुबली अशोक सिंह की मुखिया पत्नी का भी खगड़िया से ही चुनाव लड़ना तय माना जा रहा है। समस्तीपुर में हसनपुर विधानसभा क्षेत्र में बाहुबली कुंदन सिंह की पत्नी जिप उपाध्यक्ष सुनीता सिंह एवं कुख्यात अशोक यादव की पत्नी बिथान ब्लॉक प्रमुख विभा देवी भी क्रमशः कांग्रेस और जदयू से अपनी-अपनी दावेदारी जता चुके हैं। लखीसराय का कुख्यात अपराधी खिखर सिंह जिला पार्षद पत्नी चंदा देवी, नवादा में अखिलेश सिंह अपनी पत्नी अरुणा देवी को, बाहुबली कौशल यादव विधायक पत्नी पूर्णिमा यादव को चुनाव लड़ाने को बेताब हैं। सीतामढ़ी के बाहुबली राजेश चैधरी की पत्नी गुड्डी चैधरी (वर्तमान विधायक) एवं जेल में बंद अवधेश मंडल की पत्नी एवं वर्तमान विधायक बीमा भारती भी चुनावी ताल ठोकने को तैयार हैं। बेलदौर विधानसभा से दिवगंज बाहुबली सहेंद्र शर्मा की पत्नी लोजपा के टिकट पर तथा कई संगीन जुर्मों का अपराधी पप्पू देव की पत्नी पूनम देव भी विधानसभा चुनाव में दो-दो हाथ करने को तैयार बैठी हैं। इधर सिवान जेल में बंद बाहुबली पूर्व सांसद शहाबुद्दीन की पत्नी हीना शहाब भी राजद टिकट पर भाग्य आजमायेंगी। नहला पर दहला यह कि कभी नीतीश कुमार कुछ अवसर के बहाने आनंद मोहन के घर पहुंच रहे हैं। कभी राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद शहाबुद्दीन से मिलने सिवान जेल पहुंच रहे हैं, तो कभी कांग्रेस के युवराज श्रीमती बाहुबलियों का सहारा ले रहे हैं। चलिए, अब राजनीति के अपराधीकरण के स्त्रैण चरित्र को झेलने के लिए तैयार रहिए।

कभी साथ कभी घात

कौशलेन्द्र प्रियदर्शी
आज जरुरत है व्यक्तिवादी और क्षेत्रीय पार्टी के शासन को खत्म कर राष्ट्रीय पार्टी का शासन लाने की। बिहार में पार्टी की नहीं व्यक्ति का शासन चल रहा है’। उपरोक्त कथन है जनता दल यू के बागी सांसद ललन सिंह की, जिन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत क्षेत्रीय दल से करने के बाद करीब तीन दशक से अधिक क्षेत्रीय दलों के संरक्षण में बिताए हैं। अब जदयू में रहते हुए राष्ट्रीय पार्टी कांग्रे्रस के लिए पंद्रहवीं विधानसभा चुनाव में वोट मांग रहे हैं। राजद सांसद उमाशंकर सिंह भी पार्टी में रहते हुए अपने राजनीतिक लाभ के अनुसार उपयुक्त उम्मीदवारों के लिए वोट मांगेंगे। ललन सिंह और उमाशंकर सिंह में एक समानता यह है कि दल में रहते हुए दूसरे दल के उम्मीदवारों के लिए वोट मांग रहे हैं। यानी घर का भेदी लंका डाहे वाली कहावत चरितार्थ करने पर तुले हैं। राजनीतिज्ञों के यूं तो कई चेहरे होते हैं लेकिन पर्दे की पीछे। यहां तो एक ही राजनीतिज्ञ डबल रोल में नजर आ रहा है। कल तक जो साथ थे आज अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए ही घत करने को तैयार हैं। जानकारी के लिए बता दें कि डबल रोल वाले इस राजनीति की शुरुआत लोजपा के टिकट पर 2004 के लोकसभा चुनाव में सांसद बने रंजीता रंजन ने की थी। रंजीता रंजन ने नवंबर 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद के उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार कर इस डबल रोल वाले रास्ते की नींव रखी थी। श्रीमती रंजन फिलहाल कांग्रेस की शोभा बढ़ा रही है। अब उसी रास्ते पर ललन और उमाशंकर चल पड़े हैं। यह आज की राजनीति का विकृत चेहरा है जहां दल सिर्फ नीति के बजाय व्यक्ति के हिसाब से हांका जा रहा है और दिल अपने राजनीतिक स्वार्थ के हिसाब से। आज के तथाकथित राजनीतिज्ञों के लिए सिर्फ सत्ता ही सत्य है बाकी सबकुछ असत्य। आज चुनाव सिर्फ राज के लिए लड़े जा रहे हैं, नीति के लिए नहीं। तभी तो राजनीति के आंगन में साथ-साथ कदम रखने वाले दो दोस्त संघर्ष से लेकर सत्ता पाने तक साथ चले और फिर इसी सत्ता ने सिंहासन पर बैठे दोस्त से दूसरे दोस्त को विद्रोह करने पर विवश कर दिया। पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश लाओ, लालू हटाओ के अभियान के मुखिया बने ललन अब नीतीश राज हटाओ अभियान के अगुआ बने हुए हैं। जदयू में रहते हुए कांग्रेस के लिए वोट मांग राजनीति की एक और अनैतिक रेखा खींचने पर उतारु हैं। मतलब जहां से अभी पहचान है उसी घर को जलाने के लिए तैयारी कर ली है। लालटेन जलाकर जीते महाराजगंज सांसद उमाशंकर सिंह लालटेन को ही जलाने पर उतारु हैं। फिलहाल संसद में भी लालटेन का ही सहारा है। उस पर से बिडंबना देखिए कि अपने-अपने विद्रोही सांसदों को न तो पार्टी बाहर का रास्ता दिखा रही है और न ही बागी सांसद अपना घर त्याग रहे हैं। दोनों मतलबों के पीछे सिर्फ एक मकसद हैं। सत्ता में बने रहने का। मौकापरस्ती का इससे बेहतर नमूना शायद ही राजनीति में देखने को मिले। कुल मिलाकर ये दोनों राजनीति के कलयुगी विभीषण बने बैठे हैं। इसी तरह कलयुगी विभीषण हर दल में बैठे वक्त का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन देखना यह होगा कि इन कलयुगी विभीषणों के बीच रावण कौन है। टिकट के बंटवारे और चुनाव परिणाम के बाद बिहार की राजनीति में अभी और उथल-पुथल की संभावना है। सबसे आश्चर्य और गौर करने वाली बात तो यह है कि अपने क्षेत्र में मुखिया का चुनाव भी जीत पाने की क्षमता न रख पाने वाले दर्जनों लोग अपने-अपने सुप्रीमो पर आखें तरेर रहे हैं। साथ के बदले घात लगाने वाले ऐसे राजनेताओं को मतदाता क्या जवाब देंगे इसके फैसले की घड़ी नजदीक है। इतना तो तय है कि आनेवाले आम चुनाव में इसकी पहचान जनता अवश्य करेगी।फिलहाल मौकापरस्ती की जय हो।

पहचान कायम रखने की कवायद

कौशलेन्द्र प्रियदर्शी
एक जमाना था कि बेगूसराय को मास्को और मधुबनी को लेनिनग्राद के नाम से जाना जाता था। वहीं भोजपुर को भाकपा माले का गढ़ कहा जाता था। लेकिन 1990 के बाद वामपंथी धारा उन धाराओं के साथ खड़ी होने लगी जिन्हें ‘लाल सलाम’ वाले लोग बुर्जुआ वर्ग की धारा कहा करते थे और यहां से ही बिहार के मास्को, लेनिनग्राद और माले का गढ़ भी ढहना शुरू हो गया। परिणामस्वरुप मेहनत एवं अथक प्रयास  की बदौलत तैयार की गई राजनीतिक जमीन सिरे से वामपंथी हाथों से सरकने लगी। स्वतंत्र पहचान पर पहचान का ही संकट खड़ा हो गया और पिछले विधानसभा चुनाव तक किसी राजनीतिक पहचान पर फंसे पेंच ने वामदलों को पहली बार एक होने पर मजबूर कर दिया। वामपंथी दलों ने आजादी के बाद से बिहार की सत्ता पर जमे रहे शासक शक्तियों के खिलाफ लगभग 170  सीटों पर एकजुट होकर लड़ने का मन बनाया है। अहम सवाल यह है कि कभी तालमेल तो कभी घालमेल की नीति अपनाने वाले वामपंथी दलों की एकता क्या वाकई कुछ ऐसा कर पाएगी जिसकी बदौलत बिहार की राजनीति में वह तीसरी ताकत के रूप में  नजर आने लगे। बेशक कहा जा सकता है कि विधानसभा में जन प्रतिरोध की आवाज बुलंद करने में वाम दलों ने अपनी अहम भूमिका अदा की है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि कभी कांग्रेस, तो कभी लालू यादव को समर्थन देने के चक्कर में इनका चक्का जाम हो गया। बिहार में वामपंथियों की स्थिति भी कांग्रेस पार्टी से मिलती-जुलती है।
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बेड़ा हुआ गर्क
उल्लेखनीय है कि 1990 में लालू यादव बिहार की सत्ता में आए। दूसरी तरफ वामपंथी विचारधारा वाली पार्टियां शुरू से ही दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा का धुर विरोधी रही थी। 1990 के बाद से भाजपा विरोध के नाम पर अपनी स्वतंत्र पहचान रखने वाले वाम दल एक-एक कर लालू यादव के साथ हो लिए। हालांकि 90 के पहले भी कई विधानसभा क्षेत्रों में इनलोगों की आपसी लड़ाई ने ही जनाधार का खेल बिगाड़ा था। लेकिन इसके बाद से धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सत्ताधारी जमात के साथ हो लेना इनकी स्वतंत्र पहचान के लिए सबसे बड़ा संकट साबित हुआ। हालांकि वक्त को पहचान कर भाकपा माले ने लालू यादव से अपना नाता कुछ ही समय बाद तोड़ लिया जिसका नजराना आज तक जनता की तरफ से माले को मिलता रहा है। दूसरी तरफ भाकपा और माकपा धीरे-धीरे कांग्रेस पार्टी की तरह बिहार के अंदर एक परजीवी राजनीतिक जमात बन बैठी। परिणाम यह हुआ कि 1980 में 31 सीटों पर जीतने वाली भाकपा तथा माकपा नवंबर 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में क्रमशः तीन एवं एक सीटों पर अपना अस्तित्व बकररार रखने में कामयाब हो पाई। लालू यादव से शुरूआती तालमेल का फायदा यह हुआ कि कुछ वामपंथी 90 के बाद भी लोकसभा तक पहुंच गए तथा विधानसभा में भी दो अंकों में इनकी भागीदारी बनी रही। वहीं घाटा यह हुआ कि धीरे-धीरे इनका जनाधार खिसकने लगा। तालमेल के बाद जब तक भाकपा और माकपा लालू से अलग होते तब तक इनका बंटाधार हो चुका था।
विकल्प बनने की कोशिश
बिहार के अंदर वामपंथी दल पहली बार साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। पंद्रहवीं विधानसभा चुनाव के लिए यह एक बिल्कुल नया पक्ष है। बेहतर नतीजे की आस में वामपंथी दल भी उत्साहित हैं। हालांकि भाकपा माले की राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य इस  वाम एकता को एकता का प्रारंभिक चरण मानते हैं। इनका कहना है कि हमलोग की चुनावी रणनीति साझा होगी वहीं चुनाव प्रचार अलग-अलग करेंगे। गौरतलब है कि भाकपा माले वालदलों में सबसे अधिक 105 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। दीपांकर कहते हैं कि इसे पूरे तौर पर एकता नहीं माना जा सकता। वहीं भाकपा के राज्य सचिव बद्री नारायण लाल का  मानना है कि वाम एकता  पंद्रहवीं विधानसभा चुनाव में एक नया राजनीतिक संदेश देगा, क्योंकि मुद्दे सिर्फ वामपंथी दलों के पास ही है। भूमि सुधार, औद्योगिक विकास और रोजगार विधानसभा  चुनाव में वाम दलों का हथियार होगा।

फर्श से अर्श पर अति पिछड़ी जातियां

कल तक फर्श पर, आज अर्श पर। लोकतंत्र की सबसे मजबूत कड़ी है कि किसी भी जाति या जमात को बहुत दिनों तक हाशिये पर नहीं रखा जा सकता। 2005 से पहले के चुनावों में राजनीतिक दलों के द्वारा अति पिछड़ी जातियों का वजूद थोड़ा बहुत स्वीकार किया जाता है। लेकिन बदलते वक्त के साथ उनकी एकजुटता ने  इन्हें न सिर्फ सामाजिक रुतवा दिया, बल्कि आज की तारीख में सभी राजनीतिक दल इन पर डोरे डालने लगे है।
यानी अति पिछड़ी जातियां भी अब वोट बैंक बन गई है। ये जातियां राजनीतिक समीकरण को प्रभावित करने में सक्षम हैं। उल्लेखनीय है इनकी राजनीतिक भूमिका को बढ़ाने में राजग नेतृत्व वाली सरकार ने अहम योगदान दिया है। बिहार के पंचायत चुनावों में आरक्षण मिलने के बाद से इनके वोट बैंक की ताकत सभी दलों को समझ में आने लगी है। इसी का परिणाम है कि पद्रहवीं विधानसभा चुनाव में सभी दलों ने अति पिछड़ी जाति से आने वाले प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है।  बता दें कि बिहार के प्रायः सभी जिलों में अति पिछड़ी जातियों की आबादी कमोवेश है। लेकिन शुरू से उत्तर बिहार के चुनाव में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। गौरतलब है कि अति पिछड़ी जातियों की संख्या करीब 95 है। इनमें मुख्यतः धानुक, मल्लाह, हजाम, सूढ़ी, हलवाई, कहार, तांती, नागर, बिंद कानू, गंगोत, सूर्यापुरी, कलवार, नोनिया केवट निषाद, पनेरी और खरवार हैं। जिनके इक्के-दुक्के जनप्रतिनिधि ही लोकसभा और विधानसभा तक पहुंचते रहे हैं जबकि उत्तर बिहार के मधुबनी, पं. चंपारण, सीतामढ़ी, दरभंगा, मधेपुरा, सहरसा, सुपौल सहित कई अन्य जिलों में भी इनकी संख्या अच्छी खासी है जो चुनावी गणित को प्रभावित करती हैं। पिछले विधानसभा चुनाव के परिणाम पर गौर करें तो विधानसभा तक पहुंचने वाले इन जातियों के 19 प्रतिनिधि  थे। राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार नीतीश कुमार को बहुमत दिलाने में  इन जातियों का एकजुट होकर मतदान करना महत्वपूर्ण रहा। गौरतलब है कि बिहार के कुल आबादी का करीब तीस प्रतिशत हिस्सा रखनेवाली अति पिछड़ी जातियों के विधायकों की संख्या 2005 से पहले बमुश्किल बारह तक हुआ करती थी। लेकिन 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू के 9, भाजपा के 6 और राजद के 4 जनप्रतिनिधि विधानसभा पहुंचे। बहरहाल, पिछले चुनाव में करवट बदली रही इन छोटी-छोटी पार्टियों का समीकरण इस बार भी अहम राजनीतिक भूमिका अदा करने जुट गया है।